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अनेकान्त की व्यापकता
से द्वैतवाद सिद्ध हो जाता है । फिर शंकराचार्य अनेकान्तवाद को कैसे स्वीकार करते ? इस पर यह आरोप आ सकता है कि श्रुति तर्क विरुद्ध है । उत्तर यह है कि तर्क दोनों प्रकार का सम्भव है श्रुतिविरुद्ध तर्क भी है तथा श्रुतिसम्मत तर्क भी है । हमें श्रुतिसम्मत तर्क की खोज करनी चाहिये श्रुतिमतस्तर्कोऽनु-सन्धीयताम् ।
दो प्रकार के तर्क
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३. डाक्टर सतकड़ि मुखर्जी ने दो प्रकार के तर्के का उल्लेख किया अनुभवनिरपेक्ष है, दूसरा अनुभवसापेक्ष तरर्फ है । उदाहरणार्थ हम दो वाक्य लें
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१. गुलाबी रंग लाल रंग से हल्का होता है ।
२. यज्ञदत्त देवदत्त से कद में छोटा है ।
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। एक शुद्ध तर्क है जो
इसमें पहला चाक्य अनुभवनिरपेक्ष है । गुलाबी रंग का लक्षण ही है कि वह लाल रंग से हल्का होता है । अतः गुलाबी रंग लाल से हल्का होता है यह सिद्ध करने के लिए लाल रंग और गुलाबी रंग का अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है । यदि कोई यह कहे कि गुलाबी रंग लाल रंग से गहरा होता है तो उसका यह कथन अनुभव किये बिना ही अप्रमाणिक माना जा सकता है । उसे यह कहने की आवश्यकता नहीं हैं कि पहले हम गुलाबी रंग और लाल रंग को देखेंगे फिर बतायेंगे कि तुम्हारा कथन सत्य है या नहीं । यह अनुभवनिरपेक्ष तर्क की स्थिति है । इसे a Prori Logic कहते हैं ।
किन्तु उपरिलिखित दूसरे वाक्य की प्रामाणिकता को जानने के लिए यज्ञदत्त और देवदत्त को देखना आवश्यक है । यज्ञदत्त और देवदत्त शब्दों में स्वयं में कोई ऐसा चिह्न नहीं हैं कि बिना यज्ञदत्त और देवदत्त को देखे यह बताया जा सके कि उनमें कौन कद में छोटा है और कौन कद मैं बड़ा है । अतः इस वाक्य की सत्यता अनुभवसापेक्ष तर्क से सिद्ध होगी ।
शंकराचार्य यह कहता हैं कि 'कोई पदार्थ है भी और नहीं भी इस की सत्यता को जानने के लिए " अनुभव की आवश्यकता नहीं है । अस्ति नास्ति का व्यावर्तक है और नास्ति अस्ति का व्यावर्तक है । अतः जैन जिस अनुभव के आधार पर अस्ति और नास्ति का एक ही पदार्थ में युगपद् होना मान रहा है उस अनुभव की अपेक्षा किये बिना ही हम यह कह सकते हैं कि अस्ति और नास्ति परस्पर विरुद्ध धर्म हैं और वे एक में युगपद् नहीं रह सकते । अतः अनेकान्तवाद समीचीन नहीं है ।
इसके विरुद्ध जैनों का कहना है कि सभी तर्क अनुभव से सिद्ध होते हैं । हम अनुभव से ही तो यह जानते हैं कि 'कोई पदार्थ या तो होता है या नहीं होता है । इसी आधार पर हम अस्तित्व और नास्तित्व को परस्पर विरुद्ध मानते हैं । किन्तु यदि हमें अनुभव से यह पता चले कि कोई पदार्थ अपने दृव्य, क्षेत्र, काल, भाव से होता है और दूसरे के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं होता तो उससे हमें यह मानना होगा कि पदार्थ स्वचतुष्ट्य से होता और परचतुष्ट्य से नहीं होता । इस प्रकार अनेकान्तवाद एक ही पदार्थ का एक अपेक्षा से अस्तित्व और दूसरी अपेक्षा से नास्तित्व मानता है । इस के विपरीत वेदान्ती व्यवहार में जैन के तर्क से सहमत होते हुए भी परमार्थ में जैन के तर्क से सहमत नहीं है । उसका कहना है कि जैन के अनुभव में जो सापेक्षता की दृष्टि से विरुद्ध धर्मों का युगपद् एक में रहना सिद्ध हो रहा है उसी के आधार पर हम भी संसार में व्यवहार करते हैं । अतः व्यवहार में अनेकान्त को स्वीकार किया