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શ્રી મોહનલાલજી અર્ધશતાબ્દી ગ્રંથ : पारस के संग से लोहा कंचन का रूप धारण करता है । उसी प्रकार अपवित्र आत्मा पवित्र बने विना नहीं रह सकता है । स्वामी विवेकानंद का प्रवचन है कि मैं ब्राह्मण कुलोत्पन्न और ॐकार आदि के संस्कारों से संस्कारित था परंतु जब से सद्गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के संसर्ग में आया तब से ॐ के रहस्य का कुछ ओर ही अनुभव हुआ । वैसे ही हमारे आदरणीय शासनसेवक बेरीस्टर श्री वीरचंद राघवजी का है । सिर्फ वे छ महिने तक परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्री विजयानन्दसूरीश्वरजी अपरनाम श्री आत्मारामजी महाराज के सम्पर्क में रहने से ऐसा तत्त्वज्ञान प्राप्त किया कि उन की कृपा से अमेरिका में जाकर जैनधर्म की धूम मचा दी। उस समय के वहां के स्थानीय पत्र (Local Paper) से पता लगता है कि अमेरिका में जैन धर्म की धूम सी मच गई थी । स्वयं स्वामी विवेकानंद ने लिखा है कि 'शिकागो सर्वधर्म परिषद' (Chicago Parliament of religion) में संसार भर के सभी धर्मों के प्रतिनिधि उपस्थित थे, परन्तु अमेरिका की प्रजा पर प्रवचन का विशेष प्रभाव पड़ा था तो बह मेरा और बेरीष्टर वीरचंद गांधी का, अन्य का नहीं ।
तात्पर्य यह है कि महानुभावों के तप, जप, संयम का ऐसा अनोखा प्रभाव पड़ता है कि उनके भक्तों का उत्थान हुए बिना रहता नहीं। वैसे ही पूज्यवर श्री मोहनलालजी महाराज साहेब के बारेमें मी मेरे एक वयोवृद्ध धर्मनिष्ठ बन्धु के मुखसे उनके स्वानुभव का हाल सुना है जिससे संयमी पुरुषों के प्रति मेरी श्रद्धा एवं भक्ति को बड़ा ही प्रोत्साहन मिला है। उक्त बन्धुका कथन है की जिस समय करीबन संवत १९५० में मैं पूज्यवर महाराज साहिब बम्बईमें उपस्थित थे और उनके दर्शनार्थ आये हुए लोगोंकी दिनभर इतनी भीड लगी रहती थी कि उनसे मिलना अति कठीन था। अर्थात् महाराज साहिबको प्रत्येक व्यक्तिसे मिलना अशक्य था । ऐसे ही समय में मेरे मनमें तीव्र उत्कंठा हुई कि ऐसे परमपुनित महापुरुष के चरणों के स्पर्श करके मैं अपनी जीवन यात्रा को सफल बनाउं । साथ में मेरे मित्र थे। हम दोनों धर्मशाला के बाहर पूज्यं महाराज साहिब के साथ वार्तालाप भी करने की आतुरता के साथ इधर उधर घूम रहे थे कि थोड़ी ही देरमें सद्भाग्यसे महाराजजी की मेरे पर दृष्टि पडी और उन्होंने पूछा कि-'कहो क्या कुछ कहना चाहते हो ? मैं ने आनंद विभोर होकर विनयपूर्वक कहा कि आप के दर्शनसे मैं कृतकृत्य हो गया हूं और आप की कृपा हो तो श्रीमुख से व्रत धारण करना चाहता हूं ! ।
पूज्य गुरुदेव ने कहा कि क्या व्रत लेना चाहते हो ? प्रत्युत्तर में उन भाई ने कहा कि मैं स्वदारा संतोष व्रत लेना चाहता हूं। यह सुनकर गुरुदेव फिर बोले कि क्या खूब सोच समझ कर बात कर रहे हो ? तुमको मालुम है कि कथनी और करणी में जमीन और आसमान का अन्तर है । 'तीरना' शब्द मात्र बोलने से नदी पार नही कि जा सकती परन्तु दम घोटकर साहस के साथ गहरे पानी में गोता लगाकर बडे परिश्रम से और धैर्य से तैरनेका प्रयोग करने से नदी पार होती है। इसी भांती व्रत लेने से व्रतका पालन करने में प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता है। तरुणावस्थाके आवेश में व्रत लेनेकी आतुरता बताते हो परन्तु साथ में परिपालन का खूब विचार करके व्रत लेना चहिये ।
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