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आदर्श जीवन का अपूर्व प्रभाव लेखक : धर्मानुरागी श्री ऋषभदासजी जैन ( मद्रास). शैले शैले न माणिक्य, मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो न हि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने ॥१॥ बचपनसे ही परमपूज्य मुनिवर्य श्री मोहनलालजी महाराज साहिब के आदर्श जीवन की यशोगाथा मैं सुनता आया हूं । लोगों का कथन है कि उन्हीं का सबसे पहिले बम्बई में आगमन हुआ और उस समय शहर की समस्त जैन-जनेतर जनता पर उन्हों ने अपने चारित्रबल से जो प्रभाव डाला था वह लेखिनी द्वारा व्यक्त करना अशक्य है ।
जिन के जीवन में संयमशक्ति का साक्षात्कार हो जाता है उन के लिये ऐसा होना स्वाभाविक है । शास्त्रो में लिखा है कि साधुओं को तीन महिने के संयम में स्वर्ग के सुखों को स्वानुभाव होने लगता है और वर्ष पर्याय का संयम तो उस पवित्र आत्मा को उत्तरोत्तर अनुत्तर विमान के सुख का अनुभव कराने लगता है । ‘क्रिया कभी निष्फल नहीं जाती' ऐसा अकाट्य सिद्धान्त है । ____एक अभ्यासी हारमोनियम वादक 'सा रे ग म' करते करते कुछ दिनों में गाना उतारने लगता है । टाइपराईटर अभ्यास (Practice) करते करते अपने आंखो पर पट्टी बांधकर झडप से अक्षर छापता है तो दिन-रात की संयमसाधना अपना अपूर्व प्रभाव बताये विना कैसे रह सकती है । संयमसाधना का परिमल तो इतना विपुल है कि मानवसंसारका ही नही. परन्तु प्राणीमात्र को भी अपनी पवित्र सुगन्ध का स्वाद चखाये विना नहीं रह सकता है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक प्राणी को अपने अपने पुण्यानुसार लाभ मिलता है । समवसरण में पशु-पक्षि भी आकर्षित होकर उपस्थित होता है यह श्री तीर्थंकर महाप्रभु के जन्म जन्मान्तर के संयम की अनुपम शक्ति का परिचायक है ।
. पूज्यवर मुनिवर्य श्री मोहनलालजी महाराज के पवित्र जीवन के प्रभाव के बारे में सुना जाता है कि जो कोई उन के उपदेशामृत का पानकर, उन के पास किसी प्रकार का व्रतनियम लेता था और उस का विधि विधान अनुसार परिपालन करता था तो वह थोडे ही -समय में अपने अभ्युदय का अनुभव किये विना नहीं रहता था । ऐसे तो अनेक दृष्टान्त शास्त्रों में पढने व सुनने में आये हैं कि किसी भी मूढ, अज्ञानी और अनाचारी आत्मा भी सद्गुरु के समागम में आ जाता है तो पाषाण पल्लव का रूप धारण किये विना नहीं रहता।
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