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________________ - खण्ड गुरु-जीवन की झलक २१ % 3D आप विचरण करते हुए पधारे । चातुर्मास १९९३ का वहां पर ही किया । चातुर्मास समाप्त हो गया, हेमंत पूर्ण हुई और शिशिर भी पूर्णाहुति में ही थी। सुखशान्तिपूर्ण वातावरण था। समय सायंकाल था । एक लिफाफा आया। टेलीग्राम का था वह ! खोला और पढा! अत्यंत दुःखदायी समाचार विदित हुए ! गच्छपति श्रीभूपेन्द्र सूरिजी महाप्रयाण कर गये ! आनंद के वातावरण में शोक छा गया ! अपने पर रहे छत्र के इस प्रकार टूट जाने से आप को दुःख हुआ ! पर क्या किया जाय ! देववंदनादि क्रिया कर के स्वर्गस्थ की आत्मा को शांति की कामना की। सं. १९९४ का चातुर्मास आलिराजपुर में किया और तत्पश्चात् लक्ष्मणी तीर्थ का पुनरुद्धार करवाया। बात की बात में समय बीता जा रहा था । मरुधर से चतुर्विध संघ का एक पर आया । आपको शिघ्र उधर पधारने के लिये विनती थी। श्रीसंघ की आज्ञा मान्य कर विहार कर दिया। निमाड़, मेवाड़, गोड़वाड़, की भूमि को पावन करते हुये पधार गये आहोर ! जहां था मुनिसमुदाय ! श्रीसंघने आपको गच्छभार देने का निर्णय कर लिया था। निश्चित् दिन आ गया। धूम मच गई सारे नगर में। चारों ओर से भक्तजन उतर रहे थे राजस्थान के आहोर नगर में ! आहोर के लिए कहावत है कि " पंजाब में लाहोर-मरुधर में आहोर"। पर आज तो इस की शान और भी चमक गई थी। वैशाख मास की दशमी तिथि, प्रात काल १० बजनेपर उपाध्याय श्रीमद् यतीन्द्रविजयजी को गच्छाधीश पद पर आरूढ किये गये और समाज का शासन हाथ में दिया और बैठे जनसमूहने "गच्छपति श्रीयतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की जय" के नारों से आकाशमंडल गुजित कर दिया । संघने अपने मार्गदर्शक श्रीयतीन्द्र मुनीन्द्र के दीर्घायु की कामना की। इसी अवसर पर क्रियापात्र मुनि श्रीगुलाबविजयजी को उपाध्याय पद से अलंकृत किये गये । बस, तब से लेकर आज तक आप समाज का संचालन सुचारु रूप से कर रहे हैं । आप का सारा ही जीवन उपकारमय ही बीता। वृद्धायु में भी आप जनकल्याणकारी अनेक कार्य कर रहे हैं, जिन का वर्णन हम जैसे अक्षानी कैसे कर सकेंगे ! यद्यपि आप की वृद्धावस्था होगई है तथापि आपके विचार बहुत ही क्रान्तिकारी है। समाज-संगठन, जाति-सुधार एवं साहित्य-निर्माण आप का परम ध्येय रहा है । हम जैसे अशानियों को रास्ते पर लगाया और पथ-प्रदर्शन किया । गुरुदेव ? आप के शरण को पाकर मैंने मेरी यथाशक्ति साधना की। आप की कृपादृष्टि जैसी है वैसी बनी रहे-इस शुभाभिलाषा में मेरी कलम को विश्राम देता है! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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