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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
जीवन
है। मुनि श्रीयतीन्द्रविजयजी भी इस प्रकार के संयोग-वियोग से बच नहीं सके । किस को दुःख नहीं होता अपने पिता या गुरु के वियोग का! भगवान् महावीर के प्रथम गणधर श्रीगौतमस्वामीजी को भी भगवान् के वियोगने थोडी देर पागल से बना दिये थे ! मुनिश्री ऐसे चक्र को आज तक कई बार देख चुके थे । अतः हिंमत रक्खी ! उत्साह से काम में हाथ बटाया और समाज-सेवा एवं आत्मोद्वार के कार्य में तत्पर हो गये !
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बात-बात में दिन चले जा रहे थे । राजस्थान की वह भूमि ! यू. पी. में आगरा - मरुधर में बागरा ! जहाँ बिराजित थे श्रीमद्विजयधनचंद्र सूरीश्वरजी ! आचार्य देवकी आज्ञा पाकर मुनिश्री व्याख्यानपीठ पर पधारे और अपनी पियूषवाहिनी देशना शुरू की। व्याख्यान चलता रहा । इस प्रकार जनप्रिय रोचक शैली से व्याख्यान दिया कि एक भी बच्चा न उठा, न बोला ! सभा खचाखच भरी हुई थी । व्याख्यान समाप्ति के बाद आपको 'व्याख्यानवाचस्पति' पद से विभूषित कर दिया ।
विराट बृहद्विश्वकोश श्रीअभिधानराजेन्द्र को श्रीमद्विजयभूपेंद्र सूरीश्वरजी के साथ में रह कर संशोधित कर मुद्रित करवाया ! सं. १९५७ का वर्ष आया । बागरा चातुर्मास में ही गच्छ्रपति धनचन्द्र सूरीश्वरजी का स्वर्गवास हो गया । बागरा से मुनिमंडल का सियाणा पधारणा हुआ। वहां पहुँचने पर मालवभूमि को पावन कर रहे शान्तमूर्ति उपाध्याय श्रीमन्मोहन विजयजी के स्वर्गवास के अत्यंत दुखदायी हृदयविदारक समाचार आये ! मुनिवृंद में शोक छा गया ! फिर भी आपने हिम्मत दी और मुनिगण आहोर आ उपस्थित हुआ । सर्वानुमत से समाज के नायक के सम्बन्ध में विचार-विनिमय हुआ और तीन वर्ष बाद आचार्यपद देनेके लिये तैयारियां होने लगीं । मालवभूभि का सुहावना शहर जावरा ! जहां स्व. प्रभुश्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजीने क्रियोद्वार कर आत्मकल्याण का सही रास्ता समाज को बतलाया था । समय व्यतीत होते क्या देर लगती है ! समय भी आ गया । ज्येष्ठ मास था । अष्टमी जयप्रदा तिथि थी । शुभ योग और शुभ लग्न नवांश भी था । चतुर्विध संघ के समक्ष मुनिप्रवर श्रीमद्दीपविजयजी को गच्छनायक बनाये गये । सहपाठी, सहयोगी और सर्वगुणसंपन्न मुनिश्री यतींद्रविजयजी को उपाध्याय पद से विभूषित किये गये । नायक की आशा में रहकर भारतभूमि के गुर्जर, कच्छ, मरुधर, मेवाड़, नेमाड़ एवं मालव प्रांतीय गाँव, नगर में भ्रमण करना शुरू किया । शीत आपको सताने में असमर्थ रही। उष्णताने आपके आगे घुटने टेक दिये । आपने शीत और गर्मी की कुछ भी परवाह न की और अपने विहार को अप्रतिबद्ध रक्खा ।
देखते हैं और देखे हैं कई अपनी नजरों से जाते हुए ! अमर भला ! जिस का नाम हुआ उस का नाश होगा ही !
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कौन रह सकता है कुक्षी ( म०प्र०) में
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