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________________ गुरु--जीवन की झलक लेखक - ज्योतिषविशारद मुनि श्रीसागरानन्दविजयजी । वे अपना पादविहार दिनोंदिन आगे बढाये जा रहे थे। पैरों में से निकलनेचाला रक्त भूतलपर पड़े रजकणों को लाल रंग से रंगीन बनाये जा रहा था । कच्छ की वह भूमि, शरदऋतु, ठंडी हवा, प्रातकाल का समय ! अपने इस अस्थिर देह की कुछ भी परवाह न कर के राही आगे ही बढ़ा जा रहा था। कौन है वह ? देखते-देखते उस भूमि का विचरण कर के सौराष्ट्र की पुण्यभूमि में रहे तीर्थाधिराज पालीताणा की ओर प्रस्थान कर दिया। तीर्थाधिराज की यात्रा करके मालवभूमि को भी पावन कर दी। एक समय धधलपुर एवं भोपाल के डमररोड पर चलनेवाला अपने पैरों में बूटचप्पल पहन कर फिरनेवाला, श्रेष्ठि व्रजलाल की आंखों का तारा, प्रिय माता चम्पा का दुलारा वह रामरत्न! भाग्य की विचित्र गति से कौन बच सका है भला! अच्छे या बुरे कामों में प्रेरित होते क्या देर लगती है ! पर कोई ऐसा प्रसंग या निमित्त जबतक नहीं आता तब तक विचार मन ही मन में रहते हैं । छः वर्ष की लघुवय में ही माताजी परलोक की यात्रणी बन गई । रामरत्न एवं अपनी अन्य चार संतानों के साथ श्रेष्ठिवर्य ब्रजलालजी धवलपुर छोड़कर भोपाल आ बसे । प्यारे रामरत्न को अध्ययनार्थ भेजा गया। भल्प समय में ही योग्य विद्या उपार्जन कर ली। आह ! पर यह क्या ! पिताजी भी अपनी पांच संतानों को यहाँ असहाय छोड़कर सदा के लिये सो गये ! ____ मामाजी ठाकुरदासजी थे। रामरत्न की बुद्धिमत्ता और सुशीलता को देखकर उन्होंने रामरत्न को अपने घर पर रख लिया ! रामरत्न भी बहुत ही प्रेम से मामाजी को प्रत्येक कार्य में सहायक बन गया । पर इतने में यह क्या ! मामाजी के एक बार कटु शब्दोंने रामरत्न के नेत्र यकायक खोल दिये । वह तो पहले ही सजग था। मामाजी से और शिक्षा मिली। उसी क्षण में भोपाल का त्याग किया और निकल गया दुनिया की लीला का दर्शन करने के लिये रामरत्न ! सिंहस्थ को देखकर महेंदपुर आये और भाग्य का चांद चमका ! मिल गये सरस्वतीपुत्र श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ! उन्हीं से पाया मार्गदर्शन और बने श्रीयतीन्द्रविजयजी ! कहो, क्या कमी रह सकती है फिर और विद्वशिरोमणि गुरु मिलने के बाद ! कर लिया आवश्यकीय अध्ययन और पा लिया गुरुवर का सच्चा आशीर्वाद ! बातबात में १० वर्ष व्यतीत हो चुके ! इतने में यह क्या ? जिन की पावन कृपादृष्टि से इतने आगे बढे! जिन्होंने समझाया मानवजीवन का उत्थान कैसे हो-स बात को , उन्हीं परम कृपालु गुरुदेव का भी वियोग ! संयोग के बाद वियोग होता ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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