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________________ विषय खंड मेघविजय जी एवं देवानन्द महाकाव्य २५३ छन्दों के भी प्रयोग मिलते हैं। चतुर्थ सर्ग के २६ वे श्लोक में पुष्पिताम्रा छन्द है तथा २८ वें श्लोक में द्रुतविलम्बित छन्द है । छन्दों के प्रयोग में अत्यधिक सावधानी की दृष्टि रखी गई है। मेधविजयजी का भाषा पर पूर्ण आधिपत्य है । भाषा सरल एवं रोचक है । यथास्थान समासों की बहुलता है । गाढ़बन्धों की ओजस्विनी मनोहरता की छटा है । शब्द और अर्थ की समता के उत्पादन में ये माघ से टक्कर लेते हैं। इनकी पदावलि पर माघ का प्रभाव स्पष्ट है । माघ के समान ही इन्हों ने भी व्याकरण के नियमों के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। गणादि' से शब्दों का निर्माण किया गया है जैसे:- कौबेरदिग्भागमपास्यमा र्गमागस्त्यमुष्णांशुरिवावतीर्णः ___ इस पंक्ति के बेरदिग्भागम् को देखिये । 'बेरदिग्भागम्' उश्च आ च वा, ताभ्यां युक्ता इश्च लश्च, दश्च, इ-ल-दाः ते सन्ति अस्मिन् इति (वा + इलद + इन्-वेलदी) वेलदी स चासौ 'ग' गकारः, तेन भाति ईदृशः अः अकारः तम् गच्छति प्राप्नोति तत् वेलदिग्भागम्-इलादुगम – इत्यर्थः । पुनः किम्भूतम् (इलादुगमउ) र्गम् 'रम्' रकारं गच्छति गम्-इलादुर्गनाम्ना प्रतीतम् इस प्रकार के उणादि शब्दों के प्रयोग अनेक मिलते हैं । इनकी संस्कृत भाषा पर उर्दू, फारसी का प्रभाव भी लक्षित होता है । भूभृत के लिये पातिशाह, धनिक के लिये शाह का प्रयोग मिलता है। पातिशाह शब्द में फारसी एवं संस्कृत का संमिश्रण है । पाति शब्द संस्कृत है - जिसका अर्थ है प्रजापालन और शाह शब्द फारसी हैजिसका अर्थ राजा । इस प्रकार के शब्दों की बहलता नहीं । बन्दरगाह के लिये बन्दिरे शब्द का प्रयोग मिलता है। किन्तु इतना सब कुछ होते हुए भी काव्य की भाषा अत्यन्त सरल एवं रोचक है । वर्णनानुसार भाषा में क्लिष्टता एवं सरलता आती जाती है। ___ भाषा का प्रवाह अत्यन्त सुन्दर है । कालिदास की भाषा यदि मालवा की समतल भमि के समान सीधीसाधी है तो हमारे आलोच्यकवि की भाषा अरावली पर्वत की तरह उखड़खाबड़, ऊँची-नीची है । इतना सब कुछ होते हुये भी कवि की क्षमता अपूर्व है। कवि के लिए अन्य कविरचित पद्यों की पादपूर्ति का प्रतिबंध था । अतः यदि काव्यसृजन में कुछ शिथिलता नजर आती है तो वह नगण्य है । यो जहां तक प्रतिभा और काव्यगत प्रौढता का प्रश्न है हम यह कहने का लोभ संवरण नहीं कर सकते कि मेघविजयजी विदग्ध विद्वान और प्रतिभाशाली कवि और आचार्य थे । मध्यकालीन जैनसंस्कृत साहित्य में उनका स्थान चिरस्थाई और अत्यन्त महत्वपूर्ण रहेगा । इस प्रकार मध्यकालीन संस्कृत जन साहित्य का यह कवि एक अनूठा रस्म है। " देवानन्द महाकाव्य का भावपक्ष" मेघविजयजी मूलतः एक कवि हैं। भावपक्ष की दृष्टि से भवभूति के बाद मेघ विजयजी का नाम बिना किसी संदेह के लिये जा सकता है। मेघविजयजी गेभीर भावों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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