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विषयखंड
मेघविजय जी एवं देवानन्द महाकाव्य
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उपदेश करते हुए भूतल पर विचरण करने लगे। विचरण करते हुए आचार्यजी श्री मल्ल के आमन्त्रण पर खम्भात पहुंचे । वहां सम्वत् १६५७ वैशाख शुदि चौथ के दिन उन्होंने अपने प्रिय शिष्य विद्याविजय को आचार्यपद दिया और अपनी गद्दी का समर्पण किया। आचार्यपद प्राप्त होने पर इनका नाम विजयदेवसूरि पड़ा । आचार्य-प्रसंग में एक महान् उत्सव किया गया। उस उत्सव का सारा खर्च श्रीमल्ल ने उठाया । कनकविजय एवं लावण्यविजय नामक इनके दो शिष्य थे । एक बार बादशाह जहांगीर ने इन्हें अपने दरबार में बुलाया। दरबार में जाकर धर्मचर्चा से बादशाह को प्रसन्न किया । बादशाह ने प्रसन्न होकर सूरिजी को “ महातपा" का विरुद दिया ।
ये महातपा का विरुद प्राप्तकर पुनः भ्रमण के लिये निकले और ईडर पहुंचे। ईडर का राजमन्त्री सहजू श्रेष्ठि सूरिजी का उपासक था और बड़ा धनाढ्य था । उसने सूरिजी से प्रार्थना की कि आपके किसी योग्य शिष्य को ईडर में अपना पट्टधर बनाकर ईडर नगर को विशेष धन्य कीजिये; क्योंकि आचार्यपद का उत्सव करने की मेरी बड़ी तीव्र भावना है। ईडर आने से पूर्व ही पाटण में अपने शिष्य कनकविजय को उपाध्याय पद दे चुके थे । कनकविजयजी भी अत्यन्त प्रकाण्ड पण्डित थे । अतः उन्हें आचार्यपद प्रदान कर शाह सहजू की भावना का सत्कार किया । इसी समय साबली में अत्यन्त जीवहिंसा होती थी । अतः वहां जाकर जीवहिंसा को समाप्त करवाया । इसके उपरान्त गुरु एवं शिष्य सिरोही की ओर चले । सिरोही पहुंचने पर इनका आदर - सत्कार अच्छा हुआ । वहाँ से भी भ्रमण करते हुए देवपत्तन पहुंचे । देवपत्तन से सूरिजी गिरनार की यात्रा को गये ।
सूरिजी ने अत्यन्त भक्ति से रैवतक के दर्शन किये । दर्शन कर दक्षिण की ओर जाने के विचार से सूरत पहुंचे । सूरत में वहां के राजभवन में सागरपक्षी लोगों के साथ शास्त्रार्थ किया एवं सफलता प्राप्त की । सफलता के उपलक्ष में एक स्मारक बना । सूरत से दक्षिण की ओर जाते हुए सूरिजी ने शाहपुर के उपवन में चातुर्मास किया । वहां से कलिकुंडपार्श्वनाथ और करहेड़पार्श्वनाथ तीर्थों के दर्शन किये ।
तीर्थयात्रा कर सूरिजी गुजरात वापिस आए । मार्ग में अनेक स्थानों पर गौहत्या बन्द करपाई । बीजापुर के बादशाहने इनके धर्म के प्रभाव से समस्त बन्दीजनों को छोड़दिया।
इस प्रकार विहार करते-करते सरिजी गन्धपुर बंदर पहुँचे । वहां अनेक स्थानों से दर्शन के लिए दर्शनार्थी आये । धनजीशाह और रतनजी शाह के भाग्रह से सूरिजी वहां ठहर गये । साहिब पेतनय(१) ने और अखेशाह ने बड़ा उत्सव किया। यहीं पर अपने प्रिय शिष्य वीरविजय मुनि' को सं. १७१० बैसाख सुदि १० मी के दिन आचार्यपद
१. विजयदेवमहात्म्य, सर्ग ९ . २. मेघदूतसमस्यालेन भो• १०६.
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