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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
कथासारदेवानन्द महाकाव्य का सरल एवं सक्षिप्त सार इस प्रकार है । समस्त द्वीपों में जम्बूद्वीप अत्यन्त प्रसिद्ध द्वीप है। उसमें गंगानदी से सुशोभित भारतवर्ष में सर्वोत्तम गुजरात प्रदेश है । इसके समीप में ही रत्नाकर सुशोभित है । भूमि अत्यन्त उर्वरा है । ईख के खेत पकते हैं। गुजरात प्रदेश में पार्श्वनाथ का शंखेश्वर नामक तीर्थ है । ऐसे प्रदेश में पहाड़ की तलहटी में इलादुर्ग नामक श्रेष्ठ नगर है। उस नगर का राजा
डवंशीय नारायण है । उस नगर में स्थिर नामक व्यापारी रहते थे । उनकी पत्नी का नाम रूपा था । रूपा अत्यन्त सुरूप एवं पतिव्रता थी । सम्वत् १६३४ में पौष शुक्ला त्रयोदशी रविवार के शुभदिन रूपा के एक अद्भुत पुत्र उत्पन्न हुआ । अद्भुतता के कारण उसका नाम वासुदेव' रखा गया ।
युवा होने पर इन्होंने जैन मुनि बनने की अभिलाषा प्रकट की; किन्तु इनके मातापिता एवं भाइयों ने ऐसा करने से उनको रोका । ये तो मुनि बनने के लिये दृढप्रतिज्ञ थे; अतः मातापिता को इस संसार की बुराइयाँ बताकर तथा परमार्थ की अच्छाइयाँ बताकर
की सम्मति प्राप्त करली। माता ने भी ज्ञान की बातें सुनकर दीक्षा लेली। दीक्षा से पूर्व वासुकुमार तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े। तीर्थयात्रा करते हुये अहमदाबाद पहुँचे। वहां पहुंचने पर इनकी भेंट विजयसेन सूरि से हुई । विजयसेन सूरिजी से उपदेश सुनकर इन्होंने कहा, "हे गुरुजी ! मुझको दीक्षा दीजिये"। यह सुनकर गुरुजी ने कहा कि हे वत्स! तुम्हें तुम्हारे नगर में ही दीक्षा दूंगा; किन्तु तेरे अत्याग्रह से तेरी दीक्षाविधि यहां पर भी करना अनुचित नहीं । वहीं पर श्री विजयसेन सूरिने बालक वासुदेव को सं. १६४३ में दीक्षा दी। दीक्षित करके इनका नाम विद्याविजय रखा गया। पांच व्रतों को धारण कर उनका यथाशक्ति पालन किया और प्रयत्नपूर्वक ज्ञान एवं क्रिया दोनों मार्ग के पारगामी हुए। ___एक समय की बात है कि अकबर ने श्री विजयसेनसूरि को अपने दरबार में बुलाया । राधनपुर से विहार करते हुये वे लाहौर पहुंचे और धर्म की चर्चा की । उस समय अनेक ब्राह्मणों ने बादशाह को कहा कि जैन लोग खुदा द्वारा निर्मित गंगा को नहीं मानते। इसके उत्तर में आचार्य ने कहा कि जैन लोग गंगाजी को अत्यन्त पवित्र मानते हैं और इसी कारण जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा में गंगाजल की आवश्यकता होती है। यह कहकर आचार्यजीने ब्राह्मणों को निरुत्तर कर दिया। इसके बाद वे धर्म का
१ "चतुस्त्रिशत्तमे वर्षे षोडशस्य शतस्य हि । पौषे मासे सिते पक्षे त्रयोदश्यां दिने रवौ" विजयदेव
सूरिमहात्म्य, सर्ग १ श्लोक १८ २ वासुकुमार. विजयदेव. महाकाव्य ३. “ राजनगर में अपने पुत्र को और अब को दीक्षित कराने के लिये स्थिर सेठ खुद
भाया था और किराये के मकान में रहता था।" विजयदेवम.. ४-५. विजयदेवमहात्म्य, सर्ग ६ श्लोक १३-२१
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