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उपाध्याय मेघ विजय जी एवं
उनका देवानन्द महाकाव्य
ले. - श्री दिवाकर शर्मा, M. A.
संस्कृत के महाकाव्यों की परम्परा में माघ का शिशुपालवध काव्य हासोन्मुख काल के काव्यों का पथ-प्रदर्शक था । सर्वप्रथम माघ में ही कालीदास एवं अश्वघोष की काव्य-परम्परा से विच्छेद दिखाई पड़ता है और माघोत्तर काल के महाकाव्यों मे यह व्यवच्छेद अधिक से अधिक बढ़ता गया । माघ की कृत्रिम और आलंकारिक शैली की ओर ही बाद के कवि अधिक आकृष्ट हुए । महाकाव्य शाब्दिक चमत्कार, विविध छन्दः प्रयोग, आलंकारिक ज्ञान के प्रदर्शन और पाण्डित्य - प्रकाशन के क्षेत्र समझे जाने लगे । अतः माघ के पश्चात् उपलब्ध काव्यों को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं - 1 १. चित्रकाव्य २. चरितकाव्य ।
चित्रकाय में विविध छन्दःप्रयोग एवं अलंकारों की भरमार रहती थी । अलंकारों में भी श्लेष एवं यमक पर अधिक ध्यान दिया जाता था । काव्यशास्त्री इस प्रकार के काव्यों को अच्छा नहीं समझते थे । इस प्रकार के चित्रकाव्यों में कविराज के " राघवपाण्डवीय ” ने विशेष ख्याति प्राप्त की । चरितकाव्यों में किसी पौराणिक महापुरुष का, किसी राजा का अथवा अपने गुरु का चरित्र-चित्रण किया जाता था । किन्तु इस समय आश्रयदाताओं के चरित को लेकर चरितकाव्य लिखने की ओर कवियों ने अधिक ध्यान दिया । प्रत्येक राजा के दरबार में कवि रहा करते थे । वे धन के लोभ में अपने आश्रयदाता के अच्छे कार्यों को बढ़ाचढ़ाकर लिखना ही अपना कर्तव्य समझते थे । इस प्रकार के महाकाव्यों में जयानक का लिखा " पृथ्वीराज विजय " विशेष उल्लेखनीय है । कुछ काव्य पौराणिक महापुरुषों एवं गुरुवों के चरित को लेकर लिखे गये 15 इनमें कुमारसम्भव, नैषध एवं शान्तिनाथचरित आदि प्रसिद्ध हैं । ये काव्य स्वान्तः सुखाय लिखे जाते थे । इसी प्रकार के महाकाव्यों की परम्परा में हमारे कवि द्वारा विरचित देवानन्दमहाकाव्य आता है । जैनमुनि राजाओं के आश्रय में नहीं रहते थे । उनका जीवन तो अत्यन्त सादा होता था तथा वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर धर्मोपदेश देते हुए भ्रमण किया करते थे ।
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श्री मेघ विजय जी १८ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए हैं । उनके समय की प्रमुख प्रवृत्ति शृंगारमूलक थी । हिन्दी साहित्य में भी उस समय कृष्ण एवं राधा को लेकर श्रृंगाररसपूर्ण काव्य लिखे जा रहे थे । कवि लोग राधा के प्रत्येक अंग के वर्णन करने में ही अपने को कृतकृत्य समझते थे । राजदरबारों पायलों की
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