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________________ विषय खंड निश्चय और व्यवहार २४५ चाहिये और जब भी अस्थिरतावश अवरोहण का समय आवे तब तुरंतही व्यवहार का आलंबन करना चाहिये । जैसे राजप्रासाद पर चढ़ने के लिये लिफ्ट या सीढी की आवश्यक्ता रहती हैवह व्यवहार रूप है । ऊपर जाकर लिफ्ट या सीढी छोड़ देनी पड़ती है और वहां जो कार्य करने का है वह किया जाता है- वह निश्चय है । ठीक वैसे ही यह आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में पहुँचने के लिए आलंबन की सहायता से ( मन ) जब आत्मा में तल्लीन हो जाता है यानी आत्मोपयोग जब अन्य आलंबन को छोड़कर स्वस्वरूप में लय हो जाता है - वही निश्चय है; साध्य है, कार्य है । यहां व्यवहार रूप साधन की आवश्यक्ता नहीं है । जो मोक्ष को प्राप्त हो गये हैं, होते हैं और होंगे-वे सभी प्रथम व्यवहार नय का आश्रय लेकर पश्चात् निश्चय का आश्रय लेकर ही सिद्धि को प्राप्त कर सके हैं, करते हैं और करेंगे। जो शुद्ध आत्म-स्वरूप प्रगट करने में सहायक हो वही सचा व्यवहार है अन्यथा अशुद्ध व्यवहार है। अशुध्द व्यवहार त्याज्य है I जब आत्मस्थिरता प्राप्त हो वह दशा शुध्दनिश्चय की है और जब स्थिरता नहीं रह सकती हो तब व्यवहार का आलंबन लेना योग्य है । यह स्मरण रहे कि जितनी भी धार्मिक क्रियाएँ हैं या विधिनियोजित कार्य हैं वे सब व्यवहारदृष्टि की अपेक्षा से हैं। जहां तक आत्मानुभव न हो या आत्मतल्लीनता प्राप्त न हो वहां तक शुध्द व्यवहार की अपेक्षा से धार्मिक क्रियाएँ रुचि पूर्वक करनी चाहिए और व्यवहार नयका आदर करना चाहिए। सारांश यह कि हमारे रागद्वेष रूपी आत्ममल को दूर करना है। हम न तो निश्चय पर ही अनुराग करें, न व्यवहार से द्वेष ही करें, मध्यस्थ भाव से साध्य की प्राप्ति के लिये जुट जांय are आगे कर्मबन्ध न हों और पूर्णकृत कर्मों का क्षय हो। इसी प्रकार शान और क्रिया के विवाह के उपसंहार में दर्शनशास्त्र के सूक्ष्म विवेचक उपाध्याय यशोविजय जी अपने अध्यात्ममत परीक्षामें कहते हैं कि 'तदुभयक्षयादेव मोक्षोत्पत्ति : इति सर्वेषां वादिनामभिमतं तथा च तद्विजयो पाप एव प्रवर्तितव्यम् - ज्ञाननिष्ठतया, क्रियानिष्ठतया, तपोनिष्ठतया, एकाकितया, अनेकाकितयाकयेन येनोपायेन माध्यस्थ्य भावनया समुज्जीवति स स उपायः सेवनीय : नात्र विशेषा ग्रहो विधेयः sa अर्थात राग और द्वेष के सर्वथा विलय होने पर मोक्ष प्राप्त होता है- यह सब ही दर्शनों का सिध्दांत है । इस लिये राग, द्वेष को जीतने के उपायों का ही हमें आदर करना चाहिये। फिर वह भले ही ज्ञान हो, क्रिया हो, तप हो । अकेले होकर करें या कोई के साथ में रहकर करें - इन में विशेष आग्रह करने की कोई आवश्यकता नहीं Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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