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२४४ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध अभाव में उसकी वही दशा होगी जैसे जल में प्रवेशकर कितना भी कुशल तैराक हाथ पर नहीं हिलावे तो तिरने की कला का ज्ञान रखते हुए भी वह डूबकर प्राण खोदेगा। वैसे ही यदि तत्त्व का शान रखता हुआ व्यक्ति यदि उस तरफ प्रवृत्ति न करे तो वास्तविक निश्चय का अनभव उसे कमी होने का ही नहीं। अतःव्यवहार की प्रवृत्ति के बिना निश्चयदृष्टि व्यर्थ है। श्री आनंदघनजीमहाराज संभव - जिनेश्वर की स्तुति में फरमाते हैं कि:-" कारण जोगे हो कारजनीपजेरे ॥ एमां कोइ न वाद ॥ पण कारण विण कारज साधीयेरे । ए निजमत उनमाद ॥ " कारण से ही कार्य बनता है । इसमें किसी को विवाद नहीं हो सकता, क्योंकि कारण-कार्य की व्याप्ति है। परन्तु हे संभवनाथ स्वामी ! जो व्यक्ति कारण के बिना ही कार्य की निष्पत्ति चाहते हैं यानी परिश्रम के बिना या शुद्ध क्रिया किये बिना ही जो फल प्राप्त करना चाहते हैं यह उनकी मति का विभ्रम ही समझना चाहिए । मल की संगति से वस्त्र जैसे मलीन होता है वैसे ही कर्म के सम्बन्ध से आत्मा व्यावहारिक दृष्टि से अशुद्ध है। वही आत्मा निश्चयनय की अपेक्षा एवं आश्रय से शद्ध है। अन्य द्रव्यों के संमिश्रण से व्यावहारिकतया सुवर्ण जैसे अशुद्ध समझा जाता है, परन्तु निश्चय दृष्टि से वही सुवर्ण शुद्ध है।
बाहर से माकर जो वस्तु रहती है उस तरफ लक्ष रखकर व्यवहारनय बोलता है; परन्तु निश्चयनय तो स्वकीय वस्तु की तरफ लक्ष देकर ही बात करता है । वस्त्र का रंग या मल और सुवर्ण मिश्रित मृत्तिका के तरफ दृष्टि रखकर व्यवहार
तो निश्चयनय कहता है कि अपनी वस्तु (वस्त्र और सुवर्ण) तो बराबर हैं । वस्त्र व सोना कहीं जानेवाले नहीं हैं । आभ्यन्तर वस्तु ही शुद्ध व सत्य है, बाह्य जो मल-मृत्तिका है वे उस वस्त्र व सुवर्ण के नहीं हैं, परकीय हैं । विशेष प्रयत्न से मल दूर किये जा सकते हैं । वैसे ही आत्मा अपना है, कर्म बाहर से आये हैं-अतएव परकीय हैं, हेय हैं, । ऐतदर्थ परकीय स्वभाव अर्थात् परभाव को दूर करने का सतत प्रयत्न करने का लक्ष होना ही निश्चय रष्टि है। श्रीमान यशोविजयजी महाराज फरमाते हैं कि:
अलिप्तो निश्चयेनात्मा, लिप्तश्च व्यवहारतः ।
शुद्धयत्यलिप्तया ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दृशा ॥ निश्चय से आत्मा निर्लिप्त है, शुद्ध है, परन्तु व्यवहारदृष्टि से यह आत्मा लेपायमान है । झानी पुरुष सदैव निश्चय दृष्टि से यह समझता है कि मैं सिद्ध भगवान् के समान कर्मों से निर्लिप्त हूँ। केवल व्यवहारिक दृष्टि से वह अपने को लेपायमान मानकर तदनुसार क्रिया में प्रवृत्ति कर शुध्द और निर्लिप्त बन जाता है।
शुद्ध चिद्रूप के सद्ध्यान रूप पर्वत पर आरोहण करने के हेतु व्यवहारनय का अवलंबन लेना चाहिये । और उस ध्यानरूप भूमिका में जहां तक स्थिर रहा जाय वहां तक व्यवहार के आलंबन का त्याग करके निश्चय (वरूप में प्रवेश करना
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