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निश्चय और व्यवहार
लेखक:- पं. जुहारमल न्याय - साहित्यतीर्थ, पं. मिश्रीलाल बोहरा म्याय - साहित्यतीर्थ
व्यवहारं विना केचिन्नष्टा: केवल निश्वयात् । निश्वयेन विना केचित केवल व्यवहारतः ॥ द्वाभ्यां विना न स्यात् सम्यग् द्रव्यावलोकनम् । यथातथा नयाभ्यां चेत्युक्तं स्याद्वादवादिभिः ॥
उभय नेत्रों के बिना वस्तु का यथार्थ अवलोकन संभव नहीं है ठीक वैसे ही युगल नयों के बिना द्रव्यों का अवलोकन भी यथार्थ नहीं हो सकता । व्यवहारनय के for her निश्चयनय से कतिपय जीव सन्मार्ग से पतित हो गये हैं तथा एकान्त व्यवहार नय से भी अनेक जीव पथभ्रष्ट हो चुके हैं - ऐसा श्री जिनेश्वर देव ने फरमाया है । व्यवहारनय और निश्चयनय को गौण-प्रधान रखकर प्रवृत्ति करते हुए वस्तुतत्त्व का यथार्थ बोध होता है । अर्थात् जब व्यवहार की प्रधानता हो तथ निश्चय की गौणता होनी चाहिये और जिस समय निश्चय की प्रधानता हो तब व्यवहार की गौणता होनी चाहिये । इस भांति उभय दृष्टियों में जब जिसकी आवश्यक्ता हो तब उसका उपयोग होना चाहिये। लेकिन अन्य दृष्टि का तिरस्कार किंवा अपमान नहीं होना चाहिए। तभी वस्तुतत्त्व का यथार्थ बोध होता है । जिसका अनुभव करना होता है उधर व्यवहारनय प्रवृत्ति कराता है और निश्वयतय ठेठ वस्तु तक पहुँचाकर स्पर्शज्ञान द्वारा अनुभव कराता है । मतलब यह है कि शुद्ध व्यवहारनय - यह कारणरूप है और शुद्ध निश्चयनय-यह कार्य की सिद्धिस्वरूप है ।
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व्यवहार तथा
जो व्यवहार निश्वयदृष्टि की तरफ नहीं ले जाता और निश्चय के अनुभव में सहायक नहीं है वह व्यवहार शुद्ध ब्यवहीर नहीं है। यदि व्यवहार को सूत्र ( सूतं ) रूप कारण मानेंगे तो निश्चय को उससे बना हुआ कार्यरूप वल मानना होगा । तात्पर्य यह कि व्यवहार कारण और निश्चय कार्य है। एकान्तवाद निश्चय कार्य के साधक नहीं बन सकते । कई प्राणी केवल व्यवहार में ही प्रवृत्ति कर रहे हैं और निश्चय क्या है ? उसका उन्हें बोध ही नहीं है और उस तरफ उनका लक्ष भी कभी जाता ही नहीं है तो ऐसा लक्ष बिना का निशाना स्वरूप व्यवहार कभी भी कार्यसाधक या फलदायक नहीं बन सकता । कई ऐसे भी प्राणी हैं जो सिर्फ निश्चय को ही पकड़ कर बैठे हैं और व्यवहार का तिरस्कार करते हैं - उनके हाथ में निश्चय भाने का नहीं है। हाँ, केवल निश्चयदृष्टि का ज्ञान उनकी समझ में आ सकता है । परन्तु व्यवहार वर्तन या व्यवहार दृष्टि क
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