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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
सोमल खाने के पश्चात् जिस तरह प्रत्येक रंग में वह विष परिणमन होता है, उसी तरह कर्म भी स्वयं उस की प्रकृति के अनुसार परिणमन करता है । भिन्न २ औषधों में भिन्न २ गुण हैं, उसी तरह भिन्न २ कर्म भी पृथक २ भाव धारण करते हैं। कर्मों की शक्ति जबतक फलाभिमुख नहीं होती वहां तक वह सत्ता में है। फलाभिमुख होने के पश्चात् वह अपना भाव प्रकट करती है ।
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साधीन कर्म कुंभकार के कच्चे पिंड के समान हैं। उन का चाहे जैसा आकार बन सकता है । परन्तु उदयाधीन कर्म तो परिपक्व पात्र के समान हैं। उन में परिवर्तन नहीं हो सकता । सत्ताधीन कर्म पर मेख मार सकते हैं, उदयाधीन पर कुछ नहीं हो सकता । विद्यार्थी परीक्षा के पेपर नहीं देवें वहां तक त्रुटि को सुधार सकता है। पेपुर देने के पश्चात वह भूल को सुधार नहीं सकता । इसी तरह उदय में आये हुए कर्म भुगतने पड़ते हैं ।
उदयमान कर्म स्वयं कुछ नहीं कर सकते; परंतु अपनी प्रकृति के अनुसार सिर्फ कार्य होने का वे निमित्त बनाते हैं । कर्म का कार्य सिर्फ निमित्त बनाकर देने का है । अवशेष कार्य आत्मा के स्वाधीन हैं ।
अपने स्वभाव के अनुरूप और अनुभाग की तीव्रता या मंदता के प्रमाण में बलवान या निर्बल कर्म सामना करने के पश्चात् सत्वहीन हो जाता है । यदि कर्म में निमित्त पूर्ण करने से अधिक सत्ता होती तो बलात्कार से आत्मा को तत्प्रायोग कर्तव्य में जोड़ने का उसमें सामर्थ्य होता और तब आत्मा को तीनों काल में मोक्ष प्राप्त होना असंभव ही रहता । निमित्त का लाभ लेना या नहीं, यह आत्मा के स्वाधीनता की बात है । यदि आत्मा अपनी सत्ता से कायम रहे तो कर्म की उदमान सत्ता उस को स्पर्श नहीं कर सकती ।
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