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विषय खंड
कर्म और आत्मा का संयोग
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आत्मा को शुभाशुभ रसास्वाद करवाने का है । कषाय के अभाव में केवल योग प्रवृत्ति के समय प्रकृति और प्रदेशबंध फक्त शातावेदनीय कर्म ग्रहण करता है । वहां पर स्थिति और अनुभाग को अल्प अवकाश मिलता है।
जिस समय योग कषाय के साथ अनुरंजित होता है, उस समय स्थिति और अनुभाग बंधता है । अबाधा काल के समय अनुदव काल पर कर्म की प्रकृति में आत्मा न्यूनाधिक संक्रमण कर सकता है । एक समय के लिये भी यदि आत्मा कषायरहित हो जाय तो उसे केवलज्ञान प्राप्त हो जाय ।
संपूर्ण जीवन में सेवन किये हुए शुभाशुभ भावों के तारतम्य अनुसार आयुष्यकर्म बंधता है। कषायों की बहुलता द्वारा पाप प्रकृति की स्थिति का विशेष बंधन होता है और कषायों की अल्पता से देव - मनुष्य - सम्बन्धी दीर्घ आयुष्य की स्थिति बंधती है।
योग का चांचल्य और कषाय का अल्पत्व जहां पर हो वहां स्थिति और अनुभाग अल्प होता है; परन्तु योग के द्वारा उपार्जित कर्मप्रकृति के प्रदेश बहुत विस्तार वाले होते हैं। क्यों कि प्रदेशों का नियामक योग है । जिस तरह टूटकर गिरने वाले सरीखे बादल में बिजली कड़कती है, वह सिर्फ कड़ककर रह जाती है । जिस तरह शीतल का रोग तमाम शरीर में व्याप्त होकर अनुभूत होता है, परन्तु उस की स्थिति क्षणिक और वेदना की अति मंदता होती है । उस से विपरीत कषाय की बहुलता और योगों की अल्पता-ऐसे संयोगों में फलप्रदानशक्ति तथा स्थिति विशेष होती है। वह छोटी सी भी तमाम शरीर को सड़ाकर तीव्र वेदना उत्पन्न करती है, वर्षों तक आराम होने नहीं देती। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि जैसी स्थिति ध्यान में आने सरीखी है।
___ आत्मा ध्यानारूढ होवे या दौड़ता होवे - आसन की कीमत नहीं है, सिर्फ उस के कषायवृत्ति की कीमत है। कषाय के स्वरूप का मान अपनी समाज को बहुत ही थोड़ा है। कषाय का ज्ञान न होने से समाज तद्भूत पाप से बच नहीं सकती है। योगों का संकोच करने में उसका लक्ष्य है, परन्तु कषायों का संकोच करने में सर्वथा प्रकार दुर्लभ है। कषायों से अनुभाग और स्थिति प्रबलता से बन्धती है । योग के स्थान में कषाय के लिये लक्ष देने में आवे तो मोक्ष नगर जितना दूर है उतनी नजदीक आता है।
शास्त्रों में स्थूल हिंसा से हृदयगत सूक्ष्म हिंसा (आत्म हिंसा) यह महान् पाप के हेतुरूप कही गई है। कषाय आत्मा के ऊपर का मल है। वह जितने प्रमाण में न्यून होता है उतनेही प्रमाण में आत्मा पवित्र बनता है। कर्म में कुछ बल नहीं है. परंतु आत्मा के द्वारा आरोपित राग-द्वेष में बल है। मंत्रवादी कंकर डाल कर सर्प का विष उतार देता है । वहां कंकर में कोई शक्ति नहीं है; परंतु फैंकने वाले की शक्ति असर करती है।
कर्मों का परिणमन कराने वाली भी अन्य कोई शक्ति नहीं होती; परंतु जिस समय वह कर्म आत्मा के साथ जुडता है उस समय ही कब - किस तरह -कैसा फलये सब नियामों का निश्चय हो जाता है।
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