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________________ विषय खंड मेघ विजय जी एवं देवानन्द महाकाव्य झंकार सुनाई पढ़ा करती थी। चारों और विलास का बोलबोला था । किन्तु ऐसे समय में होने वाले जैन कवि पर विलासिता का प्रभाव न पड़ा। इससे दूर रहने का एकमात्र कारण जैन धर्म का आचार-विचार है। क्योंकि जैन दर्शन स्वयं शृंगारमूलक नहीं है । वह पारलौकिक है और इस लोक के जीवन को महत्व नहीं देता है । यही कारण है कि जैन कवियों पर उस समय की राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का उतना प्रभाव नहीं पड़ा । विलासता का प्रभाव न पड़ने के कारण ही इनके इस महाकाव्य में सादगी का वातावरण है। संयमी गुरु का चरित्र होनेसे भी श्रृंगाररस की गुंजाइस फिर कहां ? श्री मेघ विजयजीने इस महाकाव्य को सं. १७२७ में मारवाड़ के सादडी नगर में लिखा था । जो प्रति मिलती है वह तो मूलप्रति की प्रतिलिपि है । यह प्रतिलिपि सं. १७५५ में उन्हीं के शिष्य मेरुविजयजी के शिष्य श्री सुन्दरविजयजी ने करवाई थी । यह देवानन्द महाकाव्य की अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है' । आधुनिक समय में तो इसका दो स्थानों से प्रकाशन हो चुका है । महाकवि की जीवनी मेघविजयजी के जीवन के विषय में उनके स्वयं के काव्य मौन हैं । अतः उनके जन्मस्थान, मातापिता का नाम, उनका जन्म का नाम एवं कहां-कहां भ्रमण किया - यह कुछ भी ज्ञात नहीं। इस विषय में उनके कवियों के ग्रन्थ भी मौन हैं। उनकी गुरुपरम्परा के में लिखा है । ग्रन्थ एवं उनके समकालीन विषय में उनके स्वयं के काव्यों परम्परा में थे। श्री हीरविजय मेघविजयजी श्री हीरविजय सूरिजी की शिष्य जी की शिष्य - परम्परा इस प्रकार हे : १. सिद्धिविजय सिध्दिविजय कृपाविजय मेघविजय ( हमारे आळोच्च कवि ) 66 मुनि नयनाश्वेन्दुमिते ( १७२७) बर्षे हर्षेण सादडी नगरे । ग्रन्थ पूर्ण समजति विजवदशम्यामितिश्रेय : " देवानन्द महाकाव्य, अंतिम प्रशस्ति । २. देवानन्द महाकाव्य अंतिम प्रशस्ति । Jain Educationa International हीरविजयसूरि कनकविजय शीलविजय कमलविजय २४७ For Personal and Private Use Only चारित्रविजय www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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