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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
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वाणी-प्रभाव चौतीस अतिशय-विशिष्ट सर्वज्ञ भगवान महावीर पावापुरी में पधारे थे। उनकी वाणी अत्यन्त मधुर, आकर्षक, प्रभावक ३५ गुणों से उत्कृष्ट थी। एक योजन तक उनकी अवाज पहुँच सकती थी । इतनी मर्यादा में रहे हुए सब कोई उनकी वाणी सुन सकते थे । देव और दानव, आर्य और अनार्य, भिन्न-भिन्न देशवासी भी अपनी - अपनी भाषा में भगवान् महावीर की वाणी समझ सकते थे। यह उनका विशिष्ट प्रभाव था।
उस समय पावापुरी नाम से पहिचानी जाती अपापापुरी में यज्ञ-प्रसंग से कई ब्राह्मण विद्वद्वर्ग एकत्र हुआ था, जिस में वेद-वेदांगविद् उच्च कोटि के ११ विद्वान इन्द्रभूति गौतम आदि भी विशाल शिष्य-परिवार - सहित वहाँ आए हुए थे।
गणधर-तीर्थ-स्थापना अपने को सर्वश मानने-मनानेवाले उन उच्च १२ विद्वानों में भी जीव, कर्म, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि विषयों में संशय था । भगवान् महावीर ने सुमधुर वाणी से सप्रमाण युक्ति-प्रयुक्ति से उनके संशयों को दूर किया। परिणाम में वे सब भगवान महावीर के शिष्य हो गए, प्रव्रज्या स्वीकार कर साधु बन गए । पांच सौ शिष्यों के गण परिवारवाले इन्द्रभूति गौतम आदि ११ प्रकाण्ड विद्वान महावीर के मुख्य गणधर - पट्टशिष्य हुए थे।
___ भगवान् महावीर के तत्वज्ञानमय सदुपदेश अर्थ-भाव को उन गणधरों ने बुद्धिमय पट से साक्षात् झेला और उसे असाधारण प्रतिभा से सूत्र-सिद्धान्त रूप में ग्रन्थन किया। अर्धमागधी भाषा में प्रथित वह जिन-प्रवचन द्वादशांगी-स्वरूप में विभक्त किया गया था । काल-क्रम से न्यूनरूप में आज भी वह विद्यमान है । भगवान् महावीर के प्रवचन का सच्चा हार्द समझने के लिए अर्धमागधी भाषा का अभ्यास अत्यन्त आवश्यक है। भारत के मुख्य देशों की मातृभाषा का मूल उसमें है, लेकिन संस्कृत के पक्षपाती कई विद्वानों ने उसका गम्भीर तुलनात्मक मर्मस्पर्शी अभ्यास आगे नहीं बढ़ने दिया । भाषाऽऽर्य तब कहे जा सकते हैं, जब भारत की इस प्राचीन अर्धमागधी भाषा का रहस्य पहिचाने और उसका प्रचार करें। परदेशी भाषाओं के अभ्यास का भी प्रबन्ध करनेवाली यहाँ की युनिवर्सीटियाँ निज देश-भारत की प्राचीन प्रधान भाषा-अर्धमागधी का अध्ययन-अध्यापन के लिए, उचित आदर-प्रबन्ध नहीं कर सकी हैं-यह नितान्त सोचनीय है, लज्जास्पद बात है।
भगवान् महावीर ने गणधरकी और साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुविध संघकी स्थापना की। इस तरह तीर्थकी स्थापना करने से वे २४ वें तीर्थंकर कहे जाते हैं। उनसे पूर्व में ऋषभदेव से पार्श्वनाथ तक २३ तीर्थकर इस अवसपिणी काल में हो गए हैं।
भहिंसा को प्राधान्य भगवान महावीर के धर्म-प्रवचन में अहिंसा को प्रधान पद दिया गया है।
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