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विषय खंड
भगवान महावीर उसको लक्ष्य में रख कर सत्य, अस्तेय (अचौर्य ), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतोंकी योजना है। सर्वथा पालन कर सके ऐसे साधु-साध्विओं के लिए महाव्रतों की और अंश से पालन कर सके ऐसे श्रावक-श्राविकाओं के लिए अणुव्रतों की व्यवस्थित योजना है । कई राजा-महाराजा, रानी-महारानी, राजकुमारों और राजकुमारिकाएँ, तथा अनेक मंत्री श्रेष्ठी, सार्थवाह और अधिकारीगण एवं इतर जन-समूह भगवान् महावीर से प्रतियुद्ध हो कर उसका अनुयायी बना था और निज शक्ति के अनुसार सदाचारमय व्रत-परिपालन करता था ।
___ अहिंसा से सुख, शान्ति जहाँ हिंसा है - वहां भय है, क्लेश है, अप्रीति है, अविश्वास है, उद्वेग है, दुःख है, अशान्ति है और अहिंसा है-वहाँ निर्भयता है, क्लेश-शमन है, वहाँ प्रीति है, विश्वास है, वहां सुख और शान्ति हैं । विश्वमैत्री से विश्व शान्ति सुलभ हो सकती है । विश्वशान्ति स्थापन करने में अहिंसा ही अमोघसफल-सबल उपाय है । भगवान् महावीर के उदार प्रवचन में अहिंसा को सिर्फ मानवों की रक्षा में ही मर्यादित, संकुचित नहीं मानी है, सचराचर - विश्व के समस्त प्राणी-गण निर्भय बनें, किसी को किसीसे भी भय-त्रास-क्लेश-कदर्थना न हों, सब कोई को शान्ति मिले, सब कोई का हित हो । सब जीव जीना चाहता है, सुख सबको प्रिय है इष्ट है, दुःख सबको अप्रिय है - अनिष्ट है-ऐसा सौच - समझ कर, मन, वचन और काया से ऐसी प्रवृत्ति करें, करावे और अनुमति दे-जिससे किसी को भी क्लेश, दुःख न हो, सबको सुखशान्ति प्राप्त हो ।' आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां म समाचरेत्' अर्थात अपने को जो प्रतिकूल-अनिष्ट-दुःखकर प्रतीत होते हैं, वैसे आचरण दूसरों के प्रति नहीं आचरने चाहिए -यही उपदेश का सारांश- तात्पर्य है । हिंसा सर्वदा सर्वथा त्याग करने योग्य और अहिंसा सदा आचरने योग्य समझाई है । विश्व-मैत्री का चाहक और विश्वशान्ति का विधायक, विश्व-वत्सल, विश्व-बन्धु, जगद-बन्धु नामसे विख्यात महापुरुष विश्व के किसी भी प्राणी का विनाश-विद्रोह कैसे कर सके ? वैर-विरोध बढ़ानेवाली विनाशक विघातक प्रवृत्ति को वे कैसे अच्छी समझे ? भगवान महावीर के प्रवचन में ठौर - ठौर हिंसा को त्याग करने योग्य और अहिंसा को आचरने योग्य सविस्तार समझाई है । हिंसा को कटु विपाक और अहिंसा को शुभ विपाक दर्शाया है । दूसरोंको भय, त्रास, क्लेश, सन्ताप, दुःख देनेवाला खुद ही दुःख, कष्ट, सन्ताप पाता है और दूसरों को सुख, शान्ति देनेवाला सुख-शान्ति पाता है ।
अन्तिम क्षण तक उपदेशामृत-धारा भगवान् महावीर ने सर्वज्ञ होने के बाद तीस वर्षों तक भारत के भिन्न-भिन्न देशों में विहार कर जगत् को सुमधुर उपदेशामृत पीलाया था, जीवनको अन्तिम क्षण तक वैसी सदुपदेशामृत धारा चालू रक्खी थी, लाखों भव्य-लोगोंमें उसका पान कराया था और तदनुसार आचरण कर वे अजरामर बने थे । गत अढाई
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