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________________ विषय खंड भगवान महावीर २३५ प्रतिबोध दे कर उपशान्त बनाया था। कई दुष्टों ने ध्यानस्थ महावीर के पैरों के बीच अग्नि प्रज्वलित कर खीर पकाई थी। अन्य गोवालोंने मारने की कोशीश की थी। कानों में सजड खोलें भी भोंके थे । संगम नामक अधम असुर ने अत्यन्त असह्य प्राणान्त उपसगों से बहुत परेशान किया था । ऐसे कई भयंकर में भयंकर उपसों के समय भी महावीर समभाष में रहे थे, ध्यानसे चलायमान नहीं हुए थे। 'क्षमा वीरस्य भूषणम्' क्षमा वीरका भूषण होता है इस कथन को महावीर ने अपने दृष्टान्तसे चरितार्थ किया था। इस कारण सच्चे क्षमाश्रमण वे कहे जाते हैं। एक कविने इस प्रसंग पर कहा है कि " बलं जगद्-ध्वंसन-रक्षण-क्षम, कृपा च सा संगम के कृतागसि । इतीव संचिन्त्य विमुध्य मानसं, रुषेव रोषस्तव नाथ ! निर्ययौ ॥" भावार्थ:-हे नाथ ! महावीर ! जगत् का ध्वंस और रक्षण करने में समर्थ ऐसा बल आप में होने पर भी, ऐसे अपराधी संगम जैसे तुच्छ देव पर जो आप ने कृपा दर्शाई मानो ऐसा सौच कर, क्रोध से तुम्हारे मनको छोडकर रोष नीकल गया मालूम होता है। सर्वश महावीर भगवान महावीर ने अद्भुत क्षमा के साथ, मार्दव, आर्जव, निस्पृहता, इन्द्रियदमन, मनो-निग्रह आदि (संयमके-चारिध के) इन उच्च आदर्श सद्गुणों से जीवन को उत्कृष्ट प्रकार से ओतप्रोत कर लिया था। राग, द्वेष, मोह आदि दुर्जन अहितकर आंतरिक अरियों पर विजय प्राप्त कर लिया था। ऐसी उच्च प्रकार की अद्भुत साधना के प्रभाव से महावीर ने ४२ वर्ष की वय में घातीकों का विनाश कर केवल ज्ञानपरिपूर्णहान प्राप्त किया था। जिससे जगत् का कोई भी भाव-रहस्य छिपा नहीं था। वर्तमान, भूत और भविष्य काल का लोकालोकका सर्व स्वरूप-शान उनको हात हुआ था - इससे चे सर्वश, जिन, अर्हन् नामों से प्रसिद्ध हुए थे। देवेन्द्रों, दानवेन्द्रों और मानवेन्द्रों के पूज्य हुए थे। आठ महाप्रातिहार्यों से विभूषित बने थे । देवोंने दिव्यशक्ति से उनके अद्भुत व्याख्यान - पीठ की समवसरण की श्रेष्ठ रचना की थी। अर्धमार्गधी भाषामें धर्मोपदेश भगवान महावीर ने परिपूर्ण ज्ञान पाने के बाद लोक-कल्याण के लिए लोकभाषा प्राकृत-अर्धमार्गधी नाम से प्रसिद्ध भाषा द्वारा प्राणीमात्रको हितकर हो ऐसा धर्म-प्रवचन किया था। इस भाषा का संबंध प्राचीन अदार देशभाषाओं से है। भारत की मुख्य देशभाषाओं का निकट सम्बन्ध उसमें प्रतीत होता है। इसी कारण से ही प्राचीन नाटकरूपकों में भी स्त्री, विदूषक आदि कई पात्रोंकी भाषा अर्धमागधी - प्राकृत प्रकारकी रक्खी जाती है । यह भारत-नाट्यशास्त्र आदि से भी सूचित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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