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________________ विषय खंड संस्कृत में जैनों का काव्यसाहित्य २२९ आदिनाथ का चरित वर्णित है । रचना में अर्थगांभीर्य की अपेक्षा शब्दों के चयन में विशेष ध्यान दिया गया है। सर्वत्र अर्थालंकार की अपेक्षा शब्दालंकार अधिक दिखता है । ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ की रचना जिनसेन के महापुराण को सामने रखकर की गई है; क्योंकि ग्रन्थ में यत्र-तत्र उक्त पुराण के कहीं तो पूरे पद्य और कहीं एक या दो चरण दिखाई देते हैं । _ अन्य जैन काव्यों में मण्डन कवि का 'काव्यश्रृंगार मण्डन' और हर्षमण्डनगणि की 'मध्याह्न व्याख्या' चम्पू शैली पर लिखे गये काव्य हैं । सुभाषितः-जैन विद्वानों ने सदाचार और लोकव्यवहार का उपदेश देने के लिए स्वतंत्र रूप से सुभाषित पदों का भी निर्माण किया है। इनमें प्रायः जैन धर्मसम्मत सदाचारों एवं विचारों से रंजित उपदेश प्रस्तुत किये गये हैं। वैसे तो जैन पुराणों और अन्य साहित्यिक रचनाओं में सुभाषित पद भरे पड़े हैं; पर केवल उनका ही अध्ययन करनेवालों को तथा विविध प्रसंगों पर दूसरों को सुनाने आदि के लिए उनकी स्वतंत्र रूप से रचनाकी गई है। इस प्रकार के ग्रंथों में सोमदेवसूरि का 'नीतिवाक्यामृत' उल्लेखनीय है। यद्यपि यह ग्रन्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्यों पर व्यवस्थित शासनतंत्र के निरूपण के लिए बनाया गया है; पर इसमें दैनिक व्यवहार में लाने योग्य अनेक सुभाषित पड़े हैं। इन वाक्यों की प्रधानता के कारण ग्रन्थ का नाम नीतिवाक्यामृत रखा गया हैं। दूसरा ग्रन्थ अमितगति आचार्य का 'सुभाषित रत्नसंदोह , (सं. १०५०) इस विषय का प्रमुख ग्रन्थ है। इसमें सांसारिक विषय निराकरण, ममाहंकारत्याग, इन्द्रियनिग्रहोपदेश, स्त्रीगुणदोषविचार आदि बत्तीस प्रकरण हैं। तीसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ आचार्य हेमचन्द्र का 'योगशास्त्र प्रकाश' है। इसमें योग का अर्थ न तो ध्यान है और न ध्यान की पद्धति । ग्रन्थ में धर्मात्माओं के नित प्रति कर्तव्य के लिए धार्मिक उपदेश ही सुभाषित वाक्यों के रूप में दिये गये हैं। इस कोटि में अन्य ग्रन्थों में विविध आचार्यकृत 'सूक्तमुक्तावली' नाम की अनेक रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं जिनमें सोमप्रभसूरि (१३ वीं श०) कृत १०० प्रकीर्णक सुभाषितों का संग्रह महत्वपूर्ण है। यह भर्तृहरि के नीतिशतक की शैली पर रचा गया है जिसमें अहिंसा, शील, सौजन्य आदि विषयों का संक्षिप्त एवं मर्मस्पर्शी विवेचन किया गया है। इसका प्रथम पद्य सिंदूर प्रकर से शुरू होता है जिससे इसे 'सिन्दुर प्रकर काव्य' कहते हैं। इस प्रकार के अन्य ग्रंथों में मल्लिषेण का 'सज्जन चित्तवल्लभ' (१२ वीं श०) हरिसेन का 'कर्पूरप्रकर' दर्शनविजयगणि का 'अन्योक्ति १ श्री हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावली, नं. १७, पाटण । २ माणिकचन्द्र दिग० जैनग्रन्थमाला, बम्बई। ३ निर्णैप सागर प्रेस, बम्बई । ४ जन आत्मानन्द सभा, भाषनगर । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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