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________________ विषय खंड संस्कृत में जैनों का काव्यसाहित्य २२५ ___ यहां यह बता देना आवश्यक है कि उपलब्ध संस्कृत साहित्य में श्लेषमय चित्रकाव्यों की रचना में जैन ही सर्वप्रथम थे और धनञ्जय की कृति इस कोटि के काव्यों में सर्वप्रथम रची गई है । पीछे १५ वीं शतादी से २० वीं शताब्दी तक जैन कवियों ने इस दिशा में अनेक रचनायें लिखीं । उनमें महोपाध्याय समयसुन्दर [सं. १६४९] द्वारा विरचित 'अष्टलक्षी' काव्य भारतीय साहित्य का ही नहीं, विश्वसाहित्य का अद्वितीय रत्न है । इस ग्रन्थ में 'राजा नो ददत्ते सौख्यम्' इन आठ अक्षरों वाले वाक्य के १०२२४०७ अर्थ किये गये थे तथा ग्रन्थ बादशाह अकबर को समर्पण किया था । पीछे ग्रन्थकार ने केवल आठ लाख अर्थ रख शेष को स्थानपूर्ति के लिए छोड़ दिया है । यह ग्रन्थ जैन विद्वानों के बुद्धिवैभव का जीता-जागता नमूना' है । इस कोटि की अन्य रचनाओं में दिग० नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य पं. जगन्नाथ (सं. १६९९) की दो रचनायें 'सप्तसंधान' और 'चतुर्विंशतिसंधान ' भी उल्लेखनीय हैं। पिछले ग्रन्थ में श्लेषमय एक ही श्लोक से २४ तीर्थकरों का अर्थबोध होता है। इसी प्रकार उपाध्याय मेघविजय की रचना 'सप्तसंधान ' (सं. १७६०) भी अनुपम है । यह काव्य ९ सर्गों में लिखा गया है । प्रत्येक श्लोक से ऋषभ, शान्ति, नेमि, पार्श्व, वीर इन पांच तीर्थंकरों एवं राम और कृष्ण इस तरह ७ महापुरुषों के चरित्र का श्लेषमय वर्णन है । प्रत्येक श्लोक से ७-७ अर्थ निकलते हैं । इस श्रेणी के और भी ग्रन्थ जैन ग्रन्थसूचियों में मिलते हैं। जैन साहित्य की विविध विशेषताओं में से पादपूर्ति काव्य भी एक हैं । ये काव्य बहुसंख्या में उपलब्ध हुए हैं । अजैन संस्कृत साहित्य में इस प्रकार का साहित्य नहीं के बराबर है । ऐसे काव्यों का निर्माण करना अति कठिन ही होता है । कवि लोकव्यापी प्रभाववाले काव्य से प्रभावित हो उस मूल काव्य के रहस्य को हृदयङ्गम करता है और उसकी पदावलियों को, उनके भूल भाव, अर्थ और पदलालित्य आदि गुणों की रक्षा करते हुए, अपनी पदावलियों के बीच ढालना शुरू करता है और उन दोनों में तादात्म्य स्थापित कर देता है । जो कवि ऐसे कार्य में सहज प्राप्त होनेवाली क्लिष्टता और नीरसता आदि से अपने काव्य को बचा सकें और जिसके काव्य पढ़ने में काव्यमर्मज्ञ भी मौलिक काव्य जैसा आनन्द लेने लगे, वही कवि यथार्थ में सफल एवं गौरवान्वित समझा जाता है। इस प्रकार की रचनाओं में जिनसेन (९ वीं शता०) का 'पाश्र्वाभ्युदय" सर्व प्रथम काव्य है। यह ३६४ मन्दाक्रान्ता वृत्तों का एक खण्डकाव्य है। इसके प्रत्येक छन्द में मेघदूत के पक्षों के चरणों को एक या दो करके समस्यापूर्ति के ढंग से अन्तर्गर्भित किया १ जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ८ किरण 1, पृष्ठ २५, । २ रावजी सखाराम दोशी, सोलापुर द्वारा प्रकाशित ॐ जैन साहित्यवर्धक सभा, सूरत से प्रकाशित. ४ निर्णय सागरप्रेस, बम्बई । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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