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________________ २२६ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध गया है। इस तरह सम्पूर्ण मेघदूत समाविष्ट किया गया है और श्रृंगाररसप्रधान काव्य को वैराग्य रस में परिवर्तित कर विद्वत्ता का चमत्कार दिखाया गया है। मेघदूत के विरही यक्ष की कथा में और पार्श्वनाथ चरित में थोड़ा भी साम्य नहीं है; र कवि ने अपनी प्रतिभा द्वारा कल्पनावैषम्य आदि दोषों से बचकर रचना में ऐसा चित्र्य पैदा किया है कि पढने से स्वतंत्र काव्य जैसा आनंद आता है ।। इस रचना के बाद कई शताब्दियों तक इस प्रकार के काव्य नहीं मिलते। पीछे १५ वीं से १८ वीं शता० तक इस प्रकार के साहित्य में उत्तरोत्तर विकास एवं वृद्धि हुई है। जिनमें मेघदूत, माघ का शिशुपालवध और नैषधीय काव्य के पदों को भी पादपूर्ति के रूप में अपनाया गया है। २० वीं शताब्दी में तो इस प्रकार के काव्य केवल गुरुस्तुति रूप में रचे गये हैं जिनमें अधिकांश भक्तामर और कल्याणमन्दिर स्तोत्रों के पदों को लेकर। इसमें चरित्रसुन्दरगणि का ‘शीलदूत' (सं. १४८४ ) विक्रमकवि का 'नेमिदूत' ( १६ वीं शता०) विमलकीर्ति का 'चंद्रदूत' (सं. १६८१) अन्नातकविकृत 'चेतोदूत' मेघविजय का 'मेघदूत समस्यालेख' (सं. १७२७) ऐसे काव्य हैं जिनमें मेघदूत के प्रत्यक पद्य का अन्तिम चरण समाविष्ट किया गया है । महोपाध्याय मेघविजय ने अपने 'देवानन्दाभ्यदय, काव्य में माघकवि के शिशपालवध के पदों को तथा 'शान्तिनाथ" चरित्र' में नैषधकाव्य के पदों को समस्यापूर्ति के रूप में अपनाया हैं । कवि ने 'देवानन्दाभ्युदय' के ७ सर्गों में विजयदेवसूरि का जीवनवृत्त दिया है जिसके प्रत्येक पद्य का अन्तिम चरण माघ काव्य के प्रत्येक पद्य का ही अन्तिम चरण ह । 'शान्तिनाथ चरित्र' में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कवि ने नैषधकाव्य के प्रथम सर्ग के सम्पूर्ण पद्यों के चरणों को लेकर प्रथम चरण को प्रथम चरण के स्थानपर और दूसरे को दूसरे के तथा तीसरे को तीसरे और चौथे को चौथे के स्थान में रखकरइस तरह विभिन्न पद्यों के चरणों को क्रमशः विभिन्न चरणों में समाविष्ट कर प्रथम सर्ग को काव्यसात् कर लिया है। पादपूरण दूतकाव्यों के अतिरिक्त जैनों ने स्वतंत्र रूप से दूतकाव्य भी बनाये हैं । जैसे जिनविजयगणि का 'इन्दुदूत' (१७ वीं शता०) अञ्चलगच्छ के मेरुतुंग का 'जैन मेघदूत' (१५ वीं शता०) वादिचन्द्रसूरि का 'पवनदूतx' (१७ वीं शता० ) और अज्ञात कवि कृत 'मनोवृत+' । १. जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय, कोष्टा । २. श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, गोपीपुरा - सुरत । 3. सिंघी जैन ग्रंथमाला । ४ जैन विविध साहित्य शास्त्रमाछा नं. ७ बनारस । काव्यमाला गुच्छक १४, पृ. ४०-६०।* जैन आत्माराम सभा, भावनगर । x. काव्यमाला गुच्छक १३, पृ. ९-२४ । + जिनरत्नकोश, भाग १, अकारादिक्रमसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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