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विषय खंड
अंग विज्जा
विजयद्वार नामक इक्कीसवें अध्याय में जय-पराजय-सम्बन्धी कथन है। तालवृन्त, भंगार, वैजयन्ती, जयविजय, पुस्समाणव, शिविका, रथ, मूल्यवान वस्त्र. माल्य, आभरण आदि के अधार पर यह फल-कथन किया जाता था। उसमें पुस्समाणव (पुष्यमाणव) शब्द का उल्लेख महाभाष्य ७।२।२३ में आया है (महीपालवचः श्रुत्वा जुघुषुः पुष्य माणवाः)। आगे पृ. १६० पर भी सूत मागध के बाद पुष्यमाणव का उल्लेख हुआ है ? जिससे सूचित होता है कि ये राजा के बंदी मागध जैसे पार्श्वचर होते थे। इसी सूची में जयविजय विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। वराहमिहिर की बृहत्संहिता के अनुसार [अ. ४३, श्लोक ३९-४० ] राज्य में सात प्रकार की ध्वजाएं शक्रकुमारी कहलाती थीं। उनमें सबसे बडी शक्रजनित्री या इन्द्रमाता, उससे छोटी दो वसुन्धरा, उनसे छोटी दो जया, विजया और उनसे छोटी दो नन्दा, उपनन्दा ४ कहलाती थीं [पृ. १४६] ।
बाइसवाँ प्रशस्त नामक अध्याय है। इसमें उन उत्तम फलों की सूची है जिनका शुभ कथन किया जाता था । उनमें से कुछ विषय इस प्रकार थे-क्रय-विक्रय में लाभ, कर्मद्वारा प्राप्त लाभ, कीर्ति, वन्दना, मान, पूजा, उत्कृष्ट और कनिष्ठ शब्दों का श्रवण, सुन्दर केशविन्यास और मौलिबन्धन, केशाभिवर्धन, विवाह, विद्या, इक्षु, सस्यफल आदि का लाभ, खेती में सुभिक्ष, बन्धुजन-समागम, गेय काव्य, पादबन्ध (श्लोकरचना ), पाठ्य, काव्य, गौ आदि पशु एवं नर-नारी और स्वजनों की रक्षा, गन्धमाल्य, भाजन-भूषण आदि का संजोना, यान, आसन, शयन, कमलवन, भ्रमर, विहग, द्रुम आदि का समागम, घात, वध, बन्ध एवं हास्य, परिमोदन आदि की प्राप्ति, ग्रीष्म. वर्षा. हेमन्त. वसन्त. शरद आदि ऋतुओं की प्राप्ति, घोडे, शकर आदिका पकड़ना, घंटिक (राजप्रासाद में घंटावादन करने वाले), चक्किक (चाक्रिक, घोषणा करनेवाला बंदीविशेष, अमरकोष २।८।९८) सत्थिक (स्वस्ति वाचन करने वाला), वैतालिक [प्रातःकाल स्तुतिपाठ द्वारा जागरण करानेवाला], मंगलवाचन, मूल्यावान रत्न आदि का ग्रहण, गन्ध, माल्य, आभरण, चिरप्रवास से सफल यात्रा या सिद्ध यात्रा के साथ लौटने पर स्वजन संबंधियों से समागम, भूताधिपत्य, पुण्य उत्पत्ति, चैत्यपूजा के महोत्सव में (महामहिक) सूर्य शब्दों का श्रवण, चोरी हुए भ्रष्ट और नष्ट धन की पुनः प्राप्ति, अष्ट-मांगलिक चिहनों [चिन्धट्टय] को सुवर्ण में बना कर उनका उच्छ्रित करना, छत्र, उपानह, श्रृंगार का संप्रदान, रक्षा और संपत्ति की प्राप्ति, इच्छानुकूल आनंद प्राप्त होना, किसी विशेष शिल्प के कारण संपूजन और अभिवंदन, स्वच्छ जल की उत्पत्ति और दर्शन, मन में उत्तम विचार की उत्पति, जलपात्र या जलाशय का पूर्ण होना, जातकर्म आदि संस्कारों में प्रशस्त अग्नि का प्रज्वलित करना, आयुष्य, धन, अन्न, कनक, रत्न, भाजन, भूषण, परिधान, भवन आदि सुखकारी संपदा की प्राप्ति, ऋजु आर्जव युक्त साधुओं का पूजन, ज्येष्ठ और अनुज्येष्ठ की नियुक्ति, ज्योति, अग्नि, विद्युत, वज्र, मणि, रत्न आदिसे तृप्ति, जन्म आदि अवसरों पर होनेवाला मंडन या शोभा, आर्यजनों का संमान और पूजा, ध्यान की आराधना, पुरानी वस्तुओं
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