________________
१७८
श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
का नवीकरण, अध्यात्मगति विषयक दर्शन, किसी आढ्य पुरुष का याग, आभूषणों का झंकृत शब्द इत्यादि अनेक प्रकारके प्रशस्त या उत्तम भाव लोक में हैं । जहां मन की रुचि हो, जो इन्द्रियों को इष्ट जान पड़े, एवं लोक जिसकी पूजा करता हो, उसे ही प्रशस्त जानना चाहिए । [पृ. १४६-१४८]
तेइसवें अध्याय में अप्रशस्त वस्तुओं का उल्लेख है जिसमें रुदन, क्रोध, बुभुक्षा आदि नाना प्रकार के हीन और विनाशकारी भावों की सूची है (पृ० १४८)
२४ वें अध्याय की संज्ञा जातिविजय है । आर्य और म्लेच्छ दो प्रकार के मनुष्य हैं । आर्य के अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की गणना है । म्लेच्छवर्ग की गिनती शूद्रों में है। यह कथन पतंजलि के उस कथन से मिलता है जहां महाभाष्य में उन्होंने शक-यवनों का परिगणन शूद्रों में किया है । शात होता है कि भारतीय इतिहास के उस युग का यह सामाजिक तथ्य था जिसका उल्लेख अंगविज्जा के लेखक ने भी किया है । इन जातियों में कुछ महाकाय [लम्बे शरीरवाले ], कुछ मज्झिमकाय [मझले कदके] और कुछ छोटे कद के होते थे। कुछ लोग व्यवहारोपजीवी, कुछ शस्त्रोफजीवी और कुछ क्षेत्रोपजीवी या कृषि से जीविका करते थे । उनके रहने के स्थान नगर, अरण्य, द्वीप, पर्वत, उद्यान (निक्खुड-निष्कुट) आदि थे । पुरथिम देसीय, दक्षिण देसीय, पच्छिम देसीय, उत्तर देसीय- इस प्रकार से चार दिशाओं में रहनेवाले जन कहे हुए हैं । एक दूसरा विभाग आर्य देश और अनार्य देश निवासियों का था । (४० १४९)
पच्चीसवाँ अध्याय गोत्र नामक है। गोत्र दो प्रकार के थे, पहले गृहपतिक गोत्र और दूसरे द्वि जातिय । इस वर्गीकरण में गृहपति शब्द का अर्थ ध्यान देने योग्य है। गृहपति उस वर्ग की संज्ञा थी जो बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायी थे। उन धर्मों में अनगारिक या गृहहीन व्यक्ति तो श्रमण या मुंडक होते थे, और गृही या अगारिक सामान्य रूप से गृहपतिक कहलाते थे । उनमें, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का भेद उन धर्मों को मनःपूत न था। किन्तु ब्राह्मण धर्मानुयायी गृहस्थ द्विजाति कहलाते थे । गृहपतियों के गोत्रों में माढ, गोल, हारिक, चन्डक, सकित [कसित] वासुल, वच्छ, कोच्छ, कोसिक, कुंड ये नाम हैं। [पृ० १४९] ।
_ब्राह्मण गोत्र चार प्रकार के कहे गए हैं-१ सगोत्र [ऋषिगोत्र] २ सकविगत गोत्र [इसका तात्पर्य लौकिक गोत्रों से ज्ञात होता है, जो ऋषि गोत्रों से अतिरिक्त थे] ३ बंभचारिक गोत्र (उन नैष्ठिक ब्रह्मचारियों के गोत्र जिन्होंने ऊर्ध्वरेता होने के कारण गृहस्थ धर्म धारण नहीं किया और शान्तनु भीष्म के समान जिन्हें अन्य सब लोगों ने अपना मान लिया), (४) एवं प्रवर गोत्र । इसी प्रसंग में कुछ गोत्रों के नाम भी दिये गये हैं, जैसे-मंडव (मांडव्य ), सेटिण, वासट्ट, संडिल्ल [शांडिल्य ], कुंभ, माहकी, कस्सव [ कास्यप], गोतम, अग्गिरस, भग्गव (भार्गव), भागवत, सहया, ओयम, हारित, लोकक्खी [ लौगाक्षि], पचक्खी, चारायण, पारावण,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org