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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
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योनि ह । जहां ग्राम, नगर निगम, जनपद, पत्तन, निवेश, स्कन्धावार, अटवी, पर्वत आदि प्रदेशों में मनुष्य दूत, सन्धिपाल या प्रवासी के रूप में आते जाते हों, उस प्रसंग को प्रावासिक योनि मानना चाहिए। ये ही लोग जब ठहरे हुए हों तो उसे पत्थ या गृहयोनि समझना चाहिए ।
तेरहवें अध्याय में नाना प्रकार की योनियों के आधार पर शुभाशुभ फल का कथन है । सजीव, निर्जीव और सजीव निर्जीव तीन प्रकार की योनि और तीन ही प्रकार के लक्षण हैं अर्थात् उदात्त, दीन और दीनोदात्त । (पृ. १४०-१४४ )
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चौदहवें अध्याय में यह विचार किया गया है कि यदि प्रश्नकर्त्ता लाभ के संबंध में प्रश्न कहे तो कैसा उत्तर देना चाहिए । लाभसंबंधी प्रश्न सात प्रकार के हो सकते हैं - धनलाभ, प्रियजनसमागम, संतान या पुत्रप्राप्ति, आरोग्य, जीवित या आयुष्य, शिल्पकर्म, वृष्टि और विजय । इनका विवेचन चौदहवें से लेकर २१ वें अध्याय तक किया गया है । वृष्टिद्वार नामक वीसवें अध्याय में जलसम्बन्धी वस्तुओं का नाम देते हुए कोटिम्ब नामक विशेष प्रकार की नाव का उल्लेख आया जिसका परिगणन पृष्ठ० १६६ पर नावों की सूची में पुनः किया गया है । धनलाभ के संबंध में फल - कथन उत्तम वस्त्र, आभरण, मणि--मुक्ता, कंचन - प्रवाल, भाजन - शयन, भक्ष्य-भोजन आदि मूल्यवान वस्तुओं के आधार पर और प्रश्नकर्त्ता द्वारा उनके विषय में दर्शन या भाषण के आधार पर किया जाता था [ पृष्ठ १४४ ]
पंद्रहवें अध्याय में समागम के विषय में फल-कथन हंस- कुररी चक्रवाक, कारण्डव, कादम्ब आदि पाक्षियों की कामसंबंधी चेष्टाओं अथवा चतुष्पथ, तीर्थ, उद्यान, सागर, नदी, पतन आदि की वार्ताओं के आधार पर किया गया है । इसमें समोद, संप्रीति, मित्रसंगम या विवाह आदि फलों का उल्लेख किया जाता था ।
सोलहवें अध्याय में संतान के संबंध में प्रश्न का उत्तर कहा गया है, जो बच्चों के खिलौनों या तत्सदृश वस्तुओं के आधार पर कहा जाता था ।
सत्रहवें अध्याय में आरोग्यसंबंधी प्रश्न का उत्तर पुष्प, फल, आभूषण आदि के आधार पर अथवा हास्य, गीत आदि भावों के आधार पर करने का निर्देश है ।
अठारहवें अध्याय में जीवन और मरणसंबंधी प्रश्नकथन का वर्णन है ।
कर्मद्वार नामक उन्नीसवें अध्याय में राजोपजीवी शिल्पी एवं उनके उपकरणों के संबंध में प्रश्नकथन का उल्लेख है ।
वृष्टिद्वार नामक बीसवें अध्याय में उत्तम वृष्टि और सस्य - संपत्ति के विषय में फलकथन का निर्देश है. जो नावा, कोटिम्ब, डआलुआ नामक नौका, पद्म उत्पत्न, पुष्प, फल, कंदमूल, तैल, घृत, दुग्ध, मधुपान, वृष्टि, स्तनित, मेघगर्जन, विद्युत् आदि के आधार पर किया जाता था ।
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