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________________ विषय खंड अंग विज्जा १७५ (आदर्शगृह, -- शीश महल), तलगिह ( भूमिगृह ), आगमगिह (संभवतः आस्थायिका या आस्थानशाला ), चतुक्कगिह (चौक), रच्छागिह (रक्षागृह ), दन्तगिह · (हाथी दांत से मंडित कमरा ), कंसगिह (कांसे से मंडित कमरा), पडिकम्मगिह . (प्रतिक्रमण या धार्मिक कृत्य करने का कमरा): कंकसाला (कंक =विशेष प्रकार का लोह - उससे बना हुआ कमरा), आतपगिह, पणियगिह (पण्यगृह), आसणगिह ( आस्थान शाला), भोजनगृह, रसोतीगिह (रसवतीगृह, रसोई ), हयगृह, रथगृह, गजगृह, पुष्पगृह, द्यूतगृह, पातबगिह ( पादपगृह ), खलिणगिह (वह कमरा- जहाँ घोड़े का साज सामान रखा जाता हो), बंधनगिह ( कारागार ), जाणगिह (यानगृह ), पृ० १३६ ।। कुछ देर बाद स्थापत्यसंबन्धी शब्दों की एक लम्बी सूची पुनः आती है। जिसमें बहुत से नाम तो ये ही हैं और कुछ मये हैं, जैसे भग्गगिह (लिपा-पुता घर, भग्ग-देशीशब्द-लिपा -पुता, देशीनाममाला ६/९९ ), सिंघाडग (शृंगारक=सार्वजनिक चतुष्पथ), रायपथ (राजपथ), द्वार, क्षेत्र, अट्टालक, उदकपथ, वय (व्रज), वप्प (वप्र), फलिहा (परिघ या अर्गला), पउली (प्रतोली, नगर द्वार), अस्समोहणक (अश्वशाला), मंचिका (प्राकारके साथ बने हुए ऊंचे बैठने के स्थान), सोपान, खम्भ, अभ्यंतर द्वार, बाहिर द्वार, द्वारशाला, चतुरस्सक (चतुष्क), महाणस गिह, जलगिह, रायणगिह (रत्नगृह, जिसे पहले रयनगिह या रजतगृह कहा है वह संभवतः रत्नगृह था), भांडगृह, ओसहि गिह (ओषधिगुह ), चित्तगिह (चित्रगृह ), लतागिह, दगकोहक (उदक कोष्ठक), कोसगिह (कोषगृह ), पाणगिह (पानगृह ), वत्थगिह (वस्त्रगृह, तोशाखाना), जूतसाला ( द्यूतशाला) , पाणवगिह (पण्यगृह या व्यवहारशाला), लेवण (आलेपन या सुगंधशाला), उज्जाणगिह (उद्यानशाला, ) अएसण गिह [आदेशनगृह ], मंडव (मंडप), वेसगिह (वेशगृह श्रृंगार स्थान), कोडागार (कोठार), पवा (प्रपाशाला), सेतुकम्म (सेतुकर्म ), जणक (संभवतः जाणक - यानक), न्हाणगिह (स्नानगृह ), आतुरगिह, संसरणगिह (स्मृतिगृह), सुंकशाला (शुल्कशाला), करणशाला (अधिष्ठान या सरकारी दफ्तर), परोहड (घर का पिछवाड़ा ) । अन्त में कहा है कि और भी अनेक प्रकार के गृह या स्थान मनुष्यों के भेद से भिन्न-भिन्न होते हैं, जिनका परिचय लोक से प्राप्त किया जा सकता है । (पृ० १३७-१३८) बारहवें अध्याय में अनेक प्रकार की योनियों का वर्णन है । धर्मयोनि का संबन्ध धार्मिक जीवन और तत्संबंधी आचार-विचारों से है । अर्थयोनि का संबंध अनेक प्रकार के धनागम और अर्थोपार्जन में प्रवृत्त स्त्रीपुरुषों के जीवन से है । कामयोनि का संबंध स्त्री-पुरुषों के अनेक प्रकार के कामोपचारों से एवं गन्धमाल्य, स्नानानुलेपन, आभरण आदि की प्रवृत्तियों और भोगों से है । सत्त्वों के पारस्परिक संगम और मिथुन भाव को संगमयोनि समझना चाहिए । इसके प्रतिकूल विप्रयोगयोनि वह है जिसमें दोनों प्रेमी अलग-अलग रहते हैं। मित्रों के मिलन और आनंदमय जीवन को मित्रयोनि समझना चाहिए। जहां आपस में अमैत्री, कलह आदि हों और दो व्यक्ति आहे- नकुलं भाव से रहे वह विवाद Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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