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________________ विविध: श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ मंजूषा ), मुद्रिका ( ऐसा बर्तन जिसमें खान-पान की वस्तु मोहर लगाकर भेजी जांय ) शाकानी ( आंजने की सलाई ), पेल्लिका ( रस गालने का कोई पात्र), धूतुल्लिका ( कोई ऐसा पात्र जिसमें धूता या पुतली बनी हो), पिंछोला ( मुंह से बजाने का छोटा बाजा), फणिका ( कंधी), द्रोणी, पटलिका, वत्थरिका, कवल्ली ( गुड बनाने का बड़ा कढ़ाह) आदि (पृ. ७२ ) । १७४ तीसरे द्वार में नपुंसक जाति के अंगों का परिगणन है । चौथे द्वार में दाहिनी ओर के १७ अंगों के नाम हैं। पांचवें द्वार में १९ बाई ओर के अंग, छठे द्वार में १९ मध्यवर्ती अंग, सातवे द्वार में २८ दृढांग, आठवें द्वार में २८ चल अंग और उनमें शुभाशुभ फलों का कथन है । नवें द्वार से लेकर २७० वें द्वार तक शरीर के भिन्न -- - भिन्न अग और उनके नाना प्रकार के फलों का बहुत ही जटिल वर्णन है । इन थका देने वाली सूचियों से पार पाना इस विषय के विद्वानों के लिए भी दूभर काम रहा होगा । (पृ. ७१ - १२९ ) दशवें अध्याय में प्रश्नकर्त्ता के आगमन और उसके रंग-ढंग, आसन आदि से फलाफल का विचार है । ( पृ० १३० - १३५) पुच्छित नामक ग्यारहवें अध्याय में प्रश्नकर्त्ता की स्थिति एवं जिस स्थान में प्रश्न किया जाय उसके आधार पर फलाफल का कथन है । सांस्कृतिक दृष्टि से यह अध्याय महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें तत्कालीन स्थापत्यसंबंधी अनेक शब्दों का संग्रह आगया है; जसे कोट्टक ( कोष्ठक या कोण ), अंगण ( आंगन या अजिर ), अरंजरमूल ( जलगृह ), गर्भगृह ( अभ्यंतर गृह या अन्तः पुर ), भत्तगिह ( भोजनशाला ), वश्वगिह ( वर्चकुटी या मार्जनगृह), णकूड ( संभवतः नगकूट या उद्यान ), उदकगृह, अग्निगृह, भूमिगृह ( भोहरा), विमान, चत्वर, संधि ( दो घरों की भीतों के बीच का प्रच्छन्नस्थान ), समर (स्मरगृह या कामदेवगृह), कड़िक तोरण ( चटाई या फँस से बनाया हुआ अस्थायी तोरण), प्राकार, चरिका ( प्राकार के पीछे नगर की ओर की सड़क), वेती (संभवतः वेदिका), गयवारी ( गजशाला ), संकम ( संक्रम या परिखा के ऊपर बनाया हुआ पुलं ), शयन ( शयनागार ), वलभी ( अट्टालिका), रासी ( कूड़ी), पंसु (धूल), णिद्धमण [ पानी का निकास मार्ग, मोरी], णिकूडे [संभवतः निष्कुट ], फलिखा [ परिखा ], पावीर [ संभवतः मूल पाठ पाचीर = प्राचीर ], पेढिका [पेढी या गद्दी ], मोहणहि [ मदनगृह -- स्मरशाला ], ओसर [ अपसरक - कमरे के सामने का दालान, गुजराती ओसरी - हिन्दी ओसारा ], संकड़ ( निश्छिंद्र अल्प अवकाशवाला स्थान ), ओसधिगिह, अभ्यन्तर परिचरण (पाठान्तर परिवेष्टन - परकोटा ), बाहिरी द्वारशाला, गृहद्वार बाहा पार्श्वभाग ), उवठ्ठाण जालगिह ( वह उपस्थानशाळा जहाँ गवाक्ष जाल बने हो; यह प्रायः महल के ऊपरी भाग में बनी होती थी), अच्छणक ( आसनगृह या विश्राम स्थान ), शिल्पगृह, कर्मगृह, रजतगृह ( सोने, चांदी से मांडा हुआ विशिष्ट गृह ), अधिगिह (पाठान्तर उवगिह = उपगृह ), उप्पल गृह ( कमलगृह), हिमगृह, आदंस परिवरण - भीतरी ( गृहद्वार का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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