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________________ विषय खंड जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश १५३ पूर्णिमा-पक्षी [पाक्षिकपर्व] चतुर्दशी को मानीजाय या पूर्णिमा को ? इस प्रश्न के सम्बन्ध में पूर्णिमा का पक्ष ग्रहण करने के कारण इसका नाम पूर्णिमागच्छ पड़ा । इसका आविर्भाव सं. ११४९ या ५९ में चंद्रप्रभसूरि से हुआ । इस गच्छ की एक संस्कृत पट्टावलि विविध गच्छीय पट्टावलि संग्रह में व भाषापद्य की पट्टावलि जैन युग में प्रकाशित है जिसका सार जै. गु. भा. ३ के परिशिष्ठ में दिया है । इस गच्छ की १. ढढेरीया, २. साधुपूर्णिमा (सं. १२३६ में निकली) ३. भीमपल्लीय, ४. वटप्रदीय, ५. बोरसिद्धिय, ६. भृगुकच्छीय, ७. छापरिया, ८. द्वि. कछोलीवाल आदि शाखाओं का पता चलता है । बुद्धिसागरसूरि के गच्छमतप्रबंधानुसार इस गच्छ के श्रीपूज्य पाटण में व महात्मा कई स्थानों में विद्यमान हैं । प्रद्योतनाचार्य गच्छ - पाली में सं. ११४४ व ५१ के दो लेख इस गच्छ के मिलते हैं । प्रद्योतनाचार्य से इस गच्छका बह नाम पड़ा है। प्रभाकर गच्छ - इस गच्छ का सं. १५७२ का एक लेख ना. ले. ७६४ में प्रकाशित है, पर संभवतः नाम ठीक से नहीं पढ़ा गया । प्राया गच्छ-ना. ले. १०४२ में श्री राम (?) प्राया गच्छ नाम छपा है, पर अशुद्ध है। ब्रह्माणगच्छ -सीरोही राज्य के मंडार से उत्तर में १० मील पर व हणाद्रा से पश्चिम में १२ मील पर वरमाण नामक ग्राम है। उसीसे इस गच्छ का निकाश हुआ है । सं. ११२४ से १६ वीं शती तक के लेख इस गच्छ के प्रकाशित हैं । वास्तव में यह बृहद् गच्छ की एक शाखा है। __ब्राह्मीगच्छ -प्राचीन लेख संग्रह के ३८२ में सं. ११४४ के लेख में यह नाम आता है। बाहड --- ना. ले. २२२९ में सं. १४२१ के लेख में बाहड गच्छ छपा है। उसमें यशोभद्रसूरिसंतानीय ईश्वरसूरि का उल्लेख होने से वह संडेरक गच्छादि से सम्बन्धित लगता है। बोकडिया गच्छ - इस गच्छ के कई प्रतिमा लेख ना. जैन लेख संग्रह में प्रकाशित हैं । वड़गछ पट्टावली के अनुसार यही उसीकी एक शाखा है । सं. १४३०-१५१८ के लेख में भी इसे वृहद गच्छ की शाखा ही दिया है। वृहद गच्छ -नामानुरूप यह बहुत बड़ा समुदाय वाला गच्छ है । अनेक शाखा मूलतः इसकी शाखायें हैं । सं. ९९४ जेठ सु. ८ र. उद्योतनसूरिजी के शिष्य सर्वदेवसूरि ने ८ मुनियों को सूरिपद दिया। तभी से यह वृहद गच्छ कहा जाने लगा । मतान्तर से सं. ९९४ में सर्वदेवसूरि को नांदिया ग्राम के पास लडेकडिया? वृक्ष के नीचे उद्योतनसूरि ने आचार्यपद पर स्थापित किया । हमें इसकी भटनेर शाखा की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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