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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
पल्लिकीय (पल्लीवाल)-- जोधपुर राज्य के पाली शहर से इसका उद्भव हुआ है। इस गच्छ की एक पट्टावलि मैंने आत्मानंद जन्म शताब्दी ग्रन्थ में प्रकाशित की है । एक अन्य प्राकृत पट्टावलि भी प्राप्त है, पर उसकी प्रामाणिकता के विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता । श्रीयुत् देसाई ने जैन गुर्जर कविओ भा. ३ के परिशिष्ट में इन दोनों का सार दिया है।
पर्वीयगच्छ-ना. ले. ४१२ सं. १५०७ के लेख में यह नाम मिलता है, पर अशुद्ध ज्ञात होता है। आचार्य का नाम यशोदेव होने से मझे शद्ध नाम पल्लुकीय हो जचता है।
पार्श्वचन्द्रगच्छ - दे. नागपुरीय तपागच्छ
पिप्पलगच्छ - इसका नामकरण पिपल स्थान या वृक्ष से हुआ संभव है। वृहद गच्छ के मूलपुरुष सर्वदेवसूरि के शि० नेमिचन्द्रसूरि के शि० शांतिसूरि से सं. ११२२ में आठ (८) शाखावाला यह गच्छ निकला । पुण्यसागर के अंजना रांस से सं. १६८९ तक इस गच्छ की शाखा साचोर में विद्यमान होना निश्चित है। हमारे संग्रह की 'गुरु स्तुति' व 'धूल धौल' में शांतिसूरि से पट्टानुक्रम इस प्रकार दिया है। १) शांतिसूरि (पृथ्वीचन्द्र चरित्र रचयिता) इन्होंने नेमिचैत्य में ८ मुनियों को
आचार्य-पद दिया। उनके नाम इस प्रकार हैं । १. महेंद्र २. विजयसिंह ३. देवेंद्रचन्द्र ४. पद्मदेव ५. पूर्णचंद्र ६. जयदेव
७. हेमप्रभ ८. जिनेश्वर. २) २ विजयसिंहसूरि सं. १२०८, ३. देवभद्रसूरि, ४. धर्मघोषसूरि, ५. शीलभद्रसूरि,
६. पूर्णदेव, ७. विजयसेनसूरि, ८. धर्मदेवसूरि- इन्होंने देव के आदेश से सारंगराय व घुघल के तीन भव बतलाकर प्रतिबोधित किया। उनमे घुघल थारापद्र का राणा हुआ और उसने सरस्वती मंडप बनवाया । ९. धर्मचंद्रसूरि, १०. धर्मरत्नसूरि [१३८० ], ११. धर्मतिलकसूरि [सं. १४३७ ), १२. धर्मसिंहसूरि ( गूदियनगर में प्रासाद बनवाया), १३. धर्मप्रभसूरि (सं. १४७६), १४. धर्मशेखरसूरि (सं. १४८४ सं. १५०५), १५. धर्मसागरसूरि (सं. १५३१), १६. धर्मवल्लभसूरि (सं. १५५३ ) । प्रतिमा-लेखों में इनसे भिन्न परंपरा के नाम मिलते हैं जो शाखा-भेद के सूचक हैं । १८ वीं शती तक के लेख इस गच्छ के प्राप्त है। प्राचीन लेख संग्रह से इसकी 'त्रिभविया' व तलध्वजीय शाखा का पत्ता चलता है। इसमें त्रिभविया संभवतः उपरोक्त धर्मदेवसूरि के तीन भव कहने से पड़ा है और तलध्वजीय शाखा तलाजा स्थान के नाम से
प्रसिद्ध हुई होगी। पूर्णतल्लगच्छ -सुप्रसिद्ध हेमचंद्रसूरि इसी गच्छ में हुए हैं। उनके त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र की प्रशस्ति में उन्होंने अपना गच्छ पूर्णतल लिखा है। विशेष विवरण देखें पट्टावलि समुच्चय भा. २ पृ. २२६
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