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विषय खंड
मन्त्री मण्डन और उसका गौरवशाली वंश
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१ कादम्बरीदर्पण, २ चम्पूमण्डन, ३ चन्द्रविजयप्रबंध, ४ अलंकार - मण्डन, ५ काव्यमण्डन, ६ शृङ्गारमण्डन, ७ संगीतमण्डन, ८ उपसर्गमण्डन, ८ सारस्वतमण्डन, १० कविकल्पद्रुम.
उपरोक्त ग्रंथों में प्रथम छः ग्रंथ तो श्री हेमचन्द्राचार्य सभा, पाटण [ गूर्जर ] द्वारा प्रकाशित भी हो चुके हैं ।
' कादम्बरी' की रचना मण्डन ने सम्राट् हौशंग के कहने पर की थी । होशंगशाह को ' कादम्बरी' के श्रवण से बड़ा प्रेम था; परन्तु मूल ' कादम्बरी' ग्रंथ बड़ा होने के कारण बादशाह समयाभाव की स्थिति में पूर्णरूप से उसको अबाधगति सुन नहीं पा सकता था, फलतः बादशाह के आदेश पर मण्डन ने 'कादम्बरी का संक्षिप्तरूप ' कादस्वरीदर्पण' नाम से रचकर बादशाह को सुनाया था ।
'चन्द्रविजय प्रबंध' की रचना का कारण भी अति ही मनोरञ्जक है । एक रात्रिको मण्डन के निवास पर प्रसिद्ध विद्वानों एवं कवियों का भारी समारोह लगा था । पूर्णिमा अथवा पूर्णिमा के लगभग की तिथि होने के कारण चन्द्र भी पूर्णकलाओं के साथ था। सभा समस्त रात्रि ओर द्वितीय दिवस संध्यापर्यंत जुड़ी रही । विद्वानों ने चन्द्रमा को अपनी समस्त कलाओं के सहित पूर्व में उदय होते देखा, फिर प्रातः रवि की किरणों से परास्त होकर पश्चिम में निस्तेज होकर विलीन होते अवलोकन किया, और पुनः अपनी समस्त कलाओं के सहित पूर्व में ही उदय होते देखकर इन्हीं भावों को लेकर एक काव्य की रचना करने का प्रस्ताव रखा कि जिसमें चन्द्र और सूर्य के मध्य संग्राम होने का वर्णन हो और अंत में अष्ट प्रहर के भयंकर संग्राम के पश्चात् चन्द्रमा विजयी हुआ हो । मण्डन ने इस आशय का काव्य रचने के प्रस्ताव को सर्व प्रथम स्वीकार किया। इस घटना पर ' चन्द्रविजय प्रबंध' नामक एक मौलिक काव्य की उत्पत्ति हुई ।
संक्षेप में कि मण्डन आप स्वयं उद्भट विद्वान् था । विद्वानों का समादर करता था और सरस्वती का महात्म्य बढाना उसके निकट प्रथम कर्तव्य था । यही कारण था कि वह राजा न होकर भी राजाओं जैसा विद्वानों एवं कविकों को आश्रय देता था ।
जैसा उपर वर्णित किया गया है मण्डन ने अनेक ग्रन्थों की रचना की और अनेक प्राचीन ग्रन्थों की प्रतियां लिखवाई। ऐसा भी कहीं आभास मिलता है कि कुछ स्थानों पर उसने ज्ञान - भंडारों की स्थापना भी करवाई थी । कहीं पर उसने वृहद् सिद्धान्त कोष ' नामक एक पुस्तकालय की स्थापना भी की थी। वह जैन विद्वान् जैन धर्मी होते हुए भी वेद और वेदश एवं इतर धर्म और धर्मात्माओं तथा विद्वानों का मुक्त हृदय से स्वागत करता था । इस अद्भुत गुण के कारण ही वह इतना लोक एवं राजप्रिय बन सका था । आज भी आधुनिक विद्वानों के निकट वह उतना ही समादर का पात्र बना हुआ है ।
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