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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
तो अधिकांश काव्य रूप ऐसे हैं जिनके उद्भव का श्रेय इसी साहित्य को है । यह इन्हीं कृतियों का मौलिक अनुदान है । उदाहरणार्थ 'रास' अपभ्रंश में भी १३ वीं शताब्दी से ही मिलता है । 'फागु' का महत्व भी अपने ही प्रकार का है । कवित्त, उपदेश, पर्व, कुलक, धवळगीत आदि अनेक रचनाएं ऐसी हैं जिनका प्रारंभ अपभ्रंश में बादमें मिलता है । एक बात यह भी है कि काव्यरूपों के सम्बन्ध में अपभ्रंश का काल भी यही पडता है । अतः दोनों में कुछ साम्य है और कई काव्यरूपों में असाम्य है, जिन्हें आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्यकी अपनी ही देन कहा जाता है । विस्तार से इन काव्य रूपों का परिचय अग्रांङ्कित कुछ रचनाओं की सूची द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार यह साहित्य काव्य की विविधमुखी विषयक परंपराओं से गुंथा हुआ है । ७. भाषाविज्ञान का एक प्रमुख अंग :
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भाषाविज्ञान की दृष्टि से इन कृतियों का बड़ा महत्व है । आदिकाळ स्वतोव्याघातों का काल होने से इस समय की भाषा सम्बन्धी संक्रांति को समझाना भी अत्यावश्यक है | अपभ्रंश का हिन्दी के विकास में योग, अपभ्रंशेतर भाषा या पुरानी हिन्दी या प्राचीन राजस्थानी अथवा प्राचीन गुजराती के शद्वरूप और ध्वनियों का अध्ययन करने के लिए ये कृतियां बड़ी उपयोगी हैं। भाषाविज्ञान के विद्वानों का ध्यान मैं विनम्रता से इस ओर आकर्षित करना चाहता हूं, ताकि हिन्दी के जन्म, विकास आदि का अध्ययन प्रस्तुत किया जा सके। हिन्दी की लोकभाषा सम्बन्धी प्रवृत्तियों का अध्ययन करने में ये कृतियां बहुत सहायक सिद्ध होंगी। वि. सं. ११०० से १५०० तक के उपलब्ध साहित्य के अभाव में अब तक भाषा के विकास में जितनी अडचनें अनुभव की जा रही थीं, उनका निराकरण करने की क्षमता इन कृतियों में पूर्णतया विद्यमान हैं । सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उनकी प्रामाणिकता में संदेह नहीं है ।
८. प्राचीनता की दृष्टि से उनका महत्त्व :
उपलब्ध लेखन-सामग्री में अत्यन्त पुरातन प्रतियां इस साहित्य के भंडारों में उपलब्ध हुई हैं। राजस्थान के जैन भंडारों में लाखों की संख्या में हस्तलिखित प्रतियां सुरक्षित हैं । जिनमें जैसलमेर का भंडार ताडपत्रीयप्रतियां एवं ग्रंथों के संग्रह के रूप में विश्वविदित है । श्री नाहटाजी का कथन है कि "उस भंडार में ९।१० वीं शताब्दी की ताडपत्रीय और १३ वीं शती की कागज पर लिखित प्रतियां प्राप्त हैं ।" उतनी प्राचीन ताडपत्रीय व कागज पर लिखी हुई प्रतियां भारतभर के किसी सुरक्षित जैन भंडार में उपलब्ध नहीं हैं ।" कागज की एक प्रति खंभात भंडार में सं. १२xx. की उल्लेखनीय है। जयपुर जैन भंडार में भी सन् १२६२ का एक ग्रन्थ कागज पर लिखा हुआ सुरक्षित है ।
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श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि - स्मारक ग्रन्थ पृ. ७०५ - ७०६ ।
राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रन्थ सूची, भाग तीन, सम्पादक कस्तूरचन्द कासलीवाल पृ. २ प्रस्तावना ।
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