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________________ विषय खंड आदिकाल का हिन्दी जैन साहित्य और उसकी विशेषताएँ ११३ यह भी संभव है कि ये प्रतियां विभिन्न शाखाओं की हों। अतः पाठविज्ञान जस विषय के लिए ये भंडार बहुत महत्त्व के हैं तथा यह लेखन-परंपरा भी मुख्यतः पाठालोचन के विद्यार्थी के लिए शोध की वस्तु है । उदाहरणार्थ 'वीसलदेव रास' जसी कृतिकी समस्त प्रतियाँ जैन लेखकों की ही मिली हैं । अतः इन भंडारों का महत्व और भी बढ़ जाता है। ..चतुर्थ परंपरा है:- साहित्यिक भाषा में रचना करने के साथ लोकभाषा ग्रहण करने की । अतः इन कृतियों में इसका सम्यक् निर्वाह है। इस प्रकार जनभाषा में लिखे जाना इस साहित्य की लोकप्रियता की सबसे बड़ी विशेषता है। पंचम परंपरा है :-. जैन धर्म का प्रचार तथा जैन दर्शन को छोटी-छोटी कथाओं के माध्यम से जनता में प्रचलित करना । ये कथाएं बड़ी ही मधुर और सरस हैं । तथा जैन दर्शन इनके द्वारा खूब मुखरित हुआ है। इम कथाओं की मुख्य गर्भवस्तु चरित्र-निर्माण, अहिंसा, कर्मवाद और आदर्शवाद हैं । अस्तु, उक्त परंपराओं ने इन कृतियों में जीवन डाल दिया है। ५. परवर्ती साहित्य पर इसका प्रभाव : एक प्रमुख विशेषता इन कृतियों की यह है कि, क्या रचना-प्रकार, क्या शैली, क्या वस्तु और क्या उद्देश्य आदि सब दृष्टियों से परवर्ती काव्य को प्रभावित करने के तत्व बीज रूप में इन में विद्यमान हैं । प्राकृत में किसी काव्य रूप का क्या स्वरूप था ? अपभ्रंश में आकर वह क्या हुआ? और 'पुरानी हिन्दी में क्या हुआ? और पुरानी हिन्दी या प्राचीन राजस्थानी अथवा जूनी गुजराती में इन काव्यरूप कथाओं अथवा वर्ण्य विषयों का क्या रूप रहा ? परम्पराओं (cycles) में किस तरह परिवर्तन हुआ? आदि अनेक तथ्यों का स्पष्टिकरण इन कृतियों से होता है। अतः परवर्ती साहित्यकी पूर्ववर्ती स्थितियों का बीज रूप में अध्ययन करने के लिए यह साहित्य बड़ा उपयोगी है। ६. काव्यरूपों में वैविध्य : काव्यरूपों के क्षेत्र में भी इस साहित्य ने अपना वैविध्य प्रस्तुत किया है जिसमें रास, फागु, छप्पय, चतुष्पदिका, प्रबंध, गाथा, चच्चरी, गुर्वावली, गीत, वर्णन, दोहा. स्तुति, महात्म्य, उत्साह, अभिषेक, कळश, चैत्यपरिपाटी, संधिकडवक, धवळ, विवाहको, मंगल, वेळि, पर्व, आदि सैकडों प्रकार की रचनाएं उपलब्ध हैं, जिनपर श्री अगरचंद नाहटाने विस्तार से प्रकाश डाला है । अपभ्रंश के काव्यरूपों को देखते हुए इस आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की कृतियों का यदि तुलनात्मक विवेचन किया जाय १. देखिए नागरी पत्रिका, वर्ष ५८, अंक ४, सं.२०१० में श्री अगरचंद नाहटा द्वारा लिखित-"प्राचीन भाषा काव्यों की विविध संज्ञाएँ " लेख पृ. ४१७-३६. For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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