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विषय खंड
संगीत और नाट्य की विशेषता
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भजन स्तवन हो तो निश्चित ही ऐसे संगीत गा बजा कर हम अपने गन्तव्य स्थान अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त करके अपनी आत्मा का कल्याण कर सकते हैं। __संगीत मनीषियों ने स्वरों के सात रूप बताये हैं जिन्हें हम सा, रे, ग, म, प, ध, नि के नाम से क्रमशः षडज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद के नाम से पहिचानते पुकारते है। मयूर की आवाज से षडज, चातक से ऋषभ, बकरे से गंधार, कौए से मध्यम, कोयल की आवाज से पंचम, मेंढक से धैवत और अंकुश द्वारा ताडित किये जाने पर हाथी की जो आवाज, होती है उससे निषाद स्वर को पहचाना। इन्हीं स्वरो के आधारभूत सात खंभो पर संगीत की विशाल इमारत खडी है। इन सात स्वरों को सात महासागर की उपमा भी दी गई है, जिसमें संगीत का अथाग जल भरा पड़ा है। गुणीजनों ने इनके अतिरिक्त दो स्वर षडज और पंचम को छोडकर चार स्वरों को कोमल और एक को तीव्र बना कर बारह सुर मान लिये, जीन के आधार से छ राग और छत्तीस रागनियों की उत्पत्ती हुई जो छत्तीस राग रागनियों के नाम से प्रसिद्ध है। इनके भेद उपभेद तथा उनके गुण आदि देखना हो तो उपा० श्रीमद् यशोविजयजी कृत "श्रीपाल राजा नो रास” नामक ग्रन्थ में देख सकते हैं। उसमें विस्तार से इसका वर्णन देखने को मिलेगा।
यदि कोई संगीत तथा नृत्य के रूप को देखना चाहे, उसे समझना चाहे तो उसे दूर जाने की आवश्यकता नहीं ! प्रकृति देवी की अनेक पुस्तक उसके लिये खुली पड़ी है । जैसे - मेघों की गडगडातर व उसकी मंथरगति, पवन के सनसन करते हुए झोंके, सूर्य की किरणें, भ्रमर की गुंजार व उसकी उड़ान, मोर, कबुत्तर, चिड़ियाँ आदि की किलोलें व चहचहाट, तथा पशुओं में हिरन, बैल, घोडा, हाथी आदि की गतियाँ व बोलियाँ एवं नदी, झरनों का कलकल नाद इत्यादि ऐसी अनेक चीजें हैं जो नर्तक व संगीतकार में स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती हैं । सच्चा संगीतज्ञ व नृत्यकार साधक इन्हीं से सबकुछ सीखता है, अपने में उन्हीं भावों को उतारता है और अपने आप में लीन हो सुध बुध खो देता है । मानव शरीर ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण शक्तियों का लघु केन्द्र है । विश्वकी संगीत शक्ति का शरीर के माध्यम द्वारा आत्मा से संभोग कराना ही संगीत का वास्तविक अध्ययन है। मुसलमान कवि गालिब ने कहा है
"मय जो पीता हूँ इसलिये नहीं कि मुझे खुषी होती है। मैं जो पीता हूँ बस बे खुदी के लिये"
-गालिब एक लौ लकाये, अपने आप को भूल कर जो कलाकार साधक भक्ति भाव में इब जाता है उसके सामने सर्व सिद्धियाँ हाथ बांधे खडी रहती हैं। स्वर (सर) ही देवता और अस्वर (असुर ) बेसुरा ही राक्षस है । अतः स्वरों की शुद्ध साधना
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