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संगीत और नाट्य की विशेषता
लेखक :- माधवलाल डॉगी ।
जिस प्रकार सुन्दर शरीर अलंकारों के धारण से और भी निखर उठता है, उसी प्रकार आत्मा भी संगीत रूपी अलंकार को धारण कर खिल-खिल उठती है। यदि यह कहें कि संगीत आत्मा की खुराक है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी । संगीत की स्वरलहरी इस संसार की महानाट्यशाला को सदा अनुप्राणित करती रही है और करती रहेगी । संगीत और आत्मा का सम्बन्ध कोई नया नहीं है-प्रारंभ से ही है जो सनातन है । आत्मा और संगीत को विलग नहीं किया जा सकता । संगीत पर कई शास्त्रों की रचना हुई है और सभी मतमतान्तरों में संगीत को प्रमुख स्थान प्राप्त है।
जैन आगमों में भी संगीत और नाटय की विशद् चर्चा है' । पार्श्वदेव रचित "संगीत सार,” सुधाकलश का “संगीतोपनिषद्” तथा अनुयोग द्वार सूत्र में सप्त स्वरों आदि का अच्छा वर्णन है । 'प्रश्न व्याकरण' में अनेक वाद्यों के नाम तथा प्रकार मिलते हैं।
हजारों वर्ष के प्राचीन हमारे जिन -मन्दिरों में भगवान के सामने सभामंडप में वनी पुतलियाँ, हाथों में कई प्रकार के वाद्य लिये नृत्य-संगीत करती हुई जो दिखाई देती है - इस बात के प्रबल प्रमाण है कि हमारे यहाँ संगीत के लिये कितना बडा स्थान रहा होगा । आज भी जिन - मन्दिरों में नवपदादि विविध प्रकारी पूजायें जो पढ़ी जाती हैं वे गा बजा कर ही तो । हमारे पूर्वाचार्यों ने जिनकी अनेक राग में रचना की वे साक्षी रूप हैं कि संगीत हमारे साध्य के लिये कितना आवश्यक साधन समझा जाता रहा । इसके अतिरिक्त गंधर्व (एक विशेष जाति) के लोग नृत्य संगीत में श्री मैना सुन्दरी नाटकादि खेलते हैं वे हममें धार्मिक श्रद्धा को पुष्ट करने के लिये कितने सुन्दर साधन है ।
संगीत मानव मात्र की आत्मा का एक ऐसा भोजन है जिसके अभाव में मानवोचित गुण फूल फल नहीं सकते -- उनका विकास नहीं हो सकता । जिसमा वता के विकास की उत्कट इच्छा है, उसे कोई भी धर्मगुरू चित्त की स्थिरता के लिये -मन को वश करने के लिये संगीत के आश्रय का ही आदेश देगा।
१- संगीत और नाट्य की चर्चा के लिये देखिये श्री अभिधान राजेन्द्र कोष तीसरे भागमें “मीय, शब्द और चौथे भाग में “ण" शब्द ।
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