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________________ विविध श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ “ युञ्जानस्य योगसमाधिजमात्ममनसोः संयोगविशेषादात्मा प्रत्यक्ष इति ।" यद्यपि न्याय और वैशेषिक मान्यता में कुछ अन्तर जान पडता है, तथापि इनकी प्राचीन या अर्वाचीन मान्यता के अनुयायी समी एक मत से इस बात को मानते है कि- योगी की अपेक्षा प्रत्यक्ष ही है। कारण कि सभी की मान्यता में योगजन्य प्रत्यक्ष के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार होता ही है । परन्तु प्राचीन नैयायिक और वैशेषिक में अर्वाक-दी की अपेक्षा कुछ भेद है । इन के मन्तव्य में आत्मा को प्रत्यक्ष न मान कर अनुमेय माना गया है। प्रभाकर की मान्यता में प्रत्यक्ष, अनुमति आदि किसी में से कोई भी तरह का संविद क्यों नहीं हों पर उस में आत्मा तो प्रत्यक्ष रूप से अवश्य ही प्रभित-भासित होता है। जब कि पिछले नैयायिक और वैशेषिक विद्वानों ने “तदेवमहं प्रत्ययविषयत्वादात्मा तावत्प्रत्यक्षः” आत्मा को उसके मानसप्रत्यक्ष का विषय मान कर पर प्रत्यक्ष बतलाई है। ज्ञान को आत्मा से भिन्न माननेवाले सभी दर्शन के मत से यह बात तो फलित होती है कि- मुक्तावस्था में योगजन्य या और किसी प्रकार का ज्ञान न रहने के नाते आत्मा साक्षात्कर्ता एव साक्षात्कार का विषय नहीं ठहर सकता। इस विषय दार्शनिकों के विचार और उनकी तर्कजटिल विविध भाँति की कल्पनाएँ अतीव विस्तृत हैं पर यहाँ पर उन का प्रसङ्ग नहीं है। प्रस्तुत आत्मस्वरूप के विषय में स्वप्रकाश और परप्रकाश का कुछ दिग्दर्शन करना जरूरी है। सभी दर्शनों में ज्ञान को लेकर लौकिक और अलौकिक का विचार बहुत ही विस्तार के साथ पाया जाता है । इन्द्रियजन्य और मनोमात्रजन्य, इन्द्रियसन्निकर्षविषयक ज्ञान को लौकिकप्रत्यक्ष कहा गया है* । अलौकिकप्रत्यक्ष का वर्णन भिन्न २ दर्शनों में भिन्न भिन्न नाम से बतलाया गया है। न्याय--वैशेषिक, बौद्ध, सांख्य, योग सभी अलौकिकप्रत्यक्ष का योगिप्रत्यक्ष अथवा योगि-ज्ञान नाम से व्यवहार करते है । मीमांसक जो कि प्रधानतया सर्वज्ञत्त्व का एवं धर्माधर्मसाक्षात्कार का विरोध ही करते हैं, परन्तु फिर भी वे मोक्ष के अङ्कामूत आत्मज्ञान के अस्तित्त्व का स्वीकार करते ही हैं जो वास्तविक में योगजन्य या अलौकिक ही सिद्ध होता है ।। वेदान्त में जो ईश्वरसाक्षी चैतन्य की परिभाषा मानी गई है वही वहाँ पर अलौकिकप्रत्यक्ष स्थान का ही स्वरूप है। जैनदर्शन की परम्परा आगमानुसार यही रही है कि जो इन्द्रियजन्य न हो वही ज्ञान इसमें प्रत्यक्ष माना जाता है । दर्शनान्तरमान्य इन्द्रियजन्य लौकिक १ “आत्मा तावत्प्रत्यक्षतो न गृह्यते" न्याय भा. १-१-१०॥ "तत्रात्मा मनश्वाप्रत्यक्षे" -०८-१-२ * नैयायिकारतु. “इन्द्रियसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम" -न्याय-११-४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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