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________________ विषय खंड भारतीय दर्शनों में आत्मस्वरूप 'स्वाभासी' पद के 'स्व' का आभासनशील ओर 'स्व' के द्वारा आभासनशील ऐसे दो अर्थ फलित होते हैं, पर वस्तुतः इन दोनों अर्थों में कोई तात्त्विक भेद नहीं । दोनों अर्थों का तात्पर्य स्वप्रकाश से है और स्वप्रकाश का मतलब भी स्वप्रत्यक्ष ही है । परन्तु 'पराभासी' शब्द से निकलनेवाले दोनों अर्थोकी मर्यादा एक नहीं । पर का आभासनशील यह एक अर्थ और पर के द्वारा आभासनशील यह दूसरा अर्थ । इन दोनों अर्थों के स्वरूप में सूक्ष्मदृष्टि से अंतर ही है। पहिले अर्थ से आत्मा का परप्रकाशन स्वभाव सूचित किया गया है जबकि दूसरे अर्थ से स्वयं आत्माका अन्य के द्वारा प्रकाशित होना सूचित होता है । इस निष्कर्ष से यह तो सहज समझ में आता है कि- उपरोक्त दो भिन्न-भिन्न अर्थों में से दूसरा अर्थात् पर के द्वारा आभासित होता इस अर्थ का तात्पर्य पर के द्वारा प्रत्यक्ष होना इसी अर्थ में है । पहिले अर्थ का मतलब तो पर के प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी रूप से भासित करना यह होता है। जो दर्शन आत्मभिन्न तत्त्व को भी मानते हैं वे सभी आत्मा को पर का अवभासक मानना स्वीकार करते हैं और जिस तरह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर का अवभासक आत्मा अवश्य होता है उसी तरह वह भी किसी न किसी रूपसे स्व का भी अवभासक होता ही है, अतएव यहाँ जो दार्शनिकों का मतभेद बतलाया जा रहा है वह स्वप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष अर्थ को लेकर ही जानना चाहिये ।। __स्वप्रत्यक्षवादी वे ही कहे जा सकते हैं जो ज्ञान को स्वप्रत्यक्ष मानते हैं और साथ ही साथ ज्ञान आत्मा का अभेद या कथञ्चित् भेद मानते हैं। आत्मा को स्वप्रत्यक्ष मानने में जैन, बौद्ध, वेदान्त और उसकी शाखाएँ शङ्कर, रामानुज आदि सांख्य योग का समावेश होता है । फिर भी वह आत्मा किसीके मत में शुद्ध व नित्य चैतन्य रूपसे मानी गई है, किसनेक की मान्यतानुसार जन्यज्ञानरूप ही रही है या किली के विचार से चैतन्य-ज्ञानोमयरूप रही है क्यों कि वे सभी किसी न किसी तरह से आत्मा और ज्ञान का अभेद स्वीकार कर, ज्ञान मात्र को स्वप्रत्यक्ष ही मानते है, अब सिर्फ कुमारिल की ही एक ऐसी मान्यता है जो कि ज्ञान को परोक्ष मानते हए भी आत्मा को वेदान्त की भाँति स्वप्रकाश ही मानते हैं। इससे कुमारिल का भी सारांश तो यही मालूम होता है कि श्रुतिसिद्ध आत्मस्वरूप उन को भी मान्य है । यथा हि" आत्मनैव प्रकाश्योऽयमात्मा, ज्योतिरितीरितम् " [--श्लोक वा. आत्मवाद श्लोक-१४२ ] श्रुतियों में आत्मा को स्वप्रकाशी स्पष्ट कहा है इसलिये ज्ञान का परोक्षत्व मानने पर भी आत्मा को तो स्वप्रत्यक्ष माने बिना कोई दूसरा रास्ता ही दिखाई नहीं देता। परप्रत्यक्षवादी वे ही हो सकते हैं जो ज्ञान को आत्मा से भिन्न, पर उसका गुण मानते हैं- फिर चाहे वह ज्ञान किसी के मत से स्वप्रकाश माना जाता हो जैसे कि प्रभाकर के मत से या नैयायिकादि इन के मत में वह ज्ञान परप्रकाशक माना जाता है । न्यायभाष्यकार का मत यह है कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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