SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध RIAGaumatma orrh ealth अतएव जैनदर्शन में आत्मा को मध्यम परिमाणवाला माना गया है । जिस तरह का शरीर चाहे फिर वह मोटे में हाथी या छोटे में चीटी आदि का शरीर हो उसी शरीर में आत्मा सर्वत्र रहा हुआ है और यही मान्यता सुसंगत है । स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । प्रमाणनय-प० १ सूत्र २ जब हम आत्मा और उसके स्वरूप का विचार करते हैं तो सर्व प्रथम यह जानना अत्यावश्यक है कि दार्शनिक क्षेत्र में आत्मा और उसका ज्ञान स्वप्रकाश है या परप्रकाश है या उभयरूप स्वपरप्रकाश है ? इन प्रश्नों को लेकर दर्शनशास्त्र में विविध कल्पनाभरी अनेक तरह की जोरदार चर्चाएं दिखाई देती हैं अतएव इस विषय में किन २ दर्शनों की क्या मान्यता है इस का वर्णन करने के पहिले स्वप्रकाशत्व परप्रकाशत्व का सामान्य स्वरूप ओर एतद्विषयक संक्षिप्त कुछ बातें जान लेना अनिवार्य हैं। १- ज्ञान का स्वभाव प्रत्यक्ष योग्य है ऐसा सिद्धान्त कुछ व्यक्ति मानते हैं जब कि दूसरे कोई इससे सर्वथा विपरीत मान्यता वाले हैं । उनका कहना यही है कि ज्ञान का स्वभाव परोक्ष ही है प्रत्यक्ष नहीं है । इस तरह प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से ज्ञान के स्वभाववेद की कल्पना ही स्वप्रकाशत्व-परप्रकाशत्व की चर्चा का मूल स्त्रोत है ।। . २-स्वप्रकाश शब्दका अर्थ इतना ही है कि-स्वप्रत्यक्ष अर्थात् अपने आपही ज्ञान का प्रत्यक्षरूप से भासित होना । परन्तु जब परप्रकाश का विचारविनिमय किया जाता है तब प्रकाश के दो अर्थ मालूम हुए विना नहीं रहते । जिन में से प्रथम तो परप्रत्यक्ष अर्थात्-एक शानका अन्य व्यक्ति में प्रत्यक्षरूप से भासित होना । दूसरा अर्थ यह होगा कि परानुमेय अर्थात् एक ज्ञान का अन्य ज्ञान में अनुमेयरूपता से भासित होना । ३- स्वप्रत्यक्ष का भी यह अर्थ कदापि नहीं होता कि कोई ज्ञान स्वप्रत्यक्ष है, अतएव उसका अनुमानादिद्वारा बोध होता ही नहीं पर उसका अर्थ इतना ही है कि जब कोई ज्ञानव्यक्ति (आत्मा) उत्पन्न हुई तब वह स्वाधार प्रमाता को प्रत्यक्ष ही है, उस से अन्य प्रमाताओं के लिये उसकी परोक्षता ही है तथा स्वाधार प्रमाता के लिये भी वह ज्ञानव्यक्ति यदि वर्तमान नहीं तो परोक्ष ही है। परप्रकाश के प्रत्यक्ष अर्थके पक्ष में भी उपरोक्त बात ही घटित होती हे - अर्थात् वर्तमान ज्ञानव्यक्ति ही स्वाधार प्रमाताके लिये प्रत्यक्ष है, अन्यथा नहीं । १ “यत्वनुभूतेः-स्वयंप्रकाशत्वमुक्त तद्विय प्रकाशनवेलायां ज्ञातु ात्मनस्तथैव न तु सर्वेषां सर्वदा तथ येति नियमोऽस्ति, परानुभवस्य दानोपादानादिलिङ्गकानुमानज्ञानविषयत्वात् स्वानुभवयाप्यतीतल्याज्ञासिषमिति ज्ञानविषयम्बदर्शनाच्च । " श्री भाष्य पृष्ट २४ । -प्रमाण मीमांसा, पं० सुखलाल जी संपादिता । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy