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विषय खंड
भारतीय दर्शनों में आत्मस्वरूप
श्लोकों का ही उद्धरण दिया है, जो कि वस्तु के भाव को प्रकट करनेवाले तत्त्वसंग्रहगत श्लोकों का ही अवतरण है। इन श्लोकों का सार मात्र एक ही स्वरूप का कथन करता है जो कि मीमांसक मान्यता की ही पुष्टि है ।
___ ज्ञान एवं आत्मा में स्वावभासित्व -परावभासित्वविषयक विचार के मूल तो श्रुति में पाये जाते हैं-"तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । तमेव भान्तमनुभाति सर्वम् ॥" (कठोपनिषद् , ५-१५)
इसी तरह आगमकालीन साहित्य में भी इस विचार का उल्लेख यत्र तत्र किया हुआ स्पष्ट दिखाई देता है । पर इन विचारों का विशदरूप से स्पष्टीकरण एवं समर्थन और प्रतिपादन तो विशेष रूप से तर्कयुग में ही पाया जाता है। परोक्ष ज्ञानवादी कुमारिलआदि मीमांसक के मतानुसार ही ज्ञान और उससे अभिन्न आत्मा इन दोनों का परोक्षत्व अर्थात् मात्र परावभासित्व सिद्ध होता है । योगाचार वौद्ध की मान्यतानुसार विज्ञान बाह्य किसी चीज का अस्तित्व न होने से और विज्ञान स्वसंविद् होने से ज्ञानरूप तद्रूप आत्मा का मात्र स्वावभासित्व फलित होता है । इस ज्ञान के स्वावभासित्व- परा वमासित्व के विषय में जैनदर्शनने अपनी अनेकान्तदृष्टि के अनुसार ही अपना मत स्थिर किया है
स्वार्थावबोधः क्षम एव बोधः, प्रकाशते नार्थकथान्यथा तु । परे परेभ्योभयस्तथापि, प्रपेदिरे ज्ञानमनात्मनिष्ठम् ॥१२॥
[अन्ययोगव्यवच्छेदिका ] श्रीमद्हेमचन्द्राचार्यने ज्ञान एवं आत्मा दोनों को स्पष्टतया स्वपरावभाजी ही कहा है, इसी बात को पूर्ववर्ती आचार्यों में से सर्व प्रथन श्रीलिद्धसेनदिवाकरग्नेि ही बतलाई है।
-न्याय, ३१ । उपरोक्त श्लोक में भी श्रीसिद्धसेनदिवाकर सूरिके ही कथन का निर्देश किया गया है। अपने प्रमाणनयतत्त्व लोकालङ्कार' में श्रीवादिदेवसूरिने आत्मा का स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए जो जैनेतर मतव्यावर्तक अनेक विशेषण दिये हैं, उन में एक विशेषण देहव्यापित्व भी आत्मा के लिये दिया गया है । इस विशेषण के द्वारा आत्मा को देहव्यापित्व बतलाकर अन्य मान्यता का निराकरण किया है। जैसे कि वेदान्ती आत्मा को अणुपरिमाणी मानते है और अणुरूप परिमाणी होने से देह के एक देश-हृदयपुण्डरीक में ही आत्मा का निवास मानते हैं परन्तु यह प्रत्यक्ष से बाधित विषय है क्यों कि हमें शरीर के प्रत्येक अवयव-अङ्गोपांग में सुखदुःख का अनुभव होता हुआ दिखाई देता है । इसलिये आत्मा का अणुपरिमाण मानना भी उचित नहीं ठहरता है।
कितने ही आत्मा को महत्परिमाणवाला मानते हैं परन्तु यह भी किसी तरह से मानने योग्य नहीं हैं कारण कि- इस मान्यतासे आत्मा शरीर के बाहर भी रहेगा और इस महत्परिमाण मानने से आत्मा को अन्य का भी सुख-दुःख होगा ।
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