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श्री यतीन्द्र सूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
भेद आदि के नाम से बतलाया जाता हो, पर सभी स्वसम्मत अमूर्त आत्मतत्त्व के साथ सूक्ष्मतम किसी न किसी प्रकार का एक मूर्त तत्त्व का ऐसा विचित्र सम्बन्ध मानते ही है । जो कि अविद्या या अज्ञानादि उपरोक्त कारणों की विद्यमानता में ही अपना अस्तित्व रखता है । अतएव सभी द्वैतवादी के मत से अमूर्त और मूर्त का पारस्परिक सम्बन्ध निर्विवाद है। जिस तरह अज्ञान अनादिकालीन होने पर भी नष्ट होता है वैसे ही वह अनादि सम्बन्ध भी अज्ञान का नाश होते ही नष्ट हो जाता है । पूर्णज्ञान की प्राप्ति के बाद सर्वथा दोष का संभव न होने के कारण अज्ञान आदि का उदय किसी हालत में संभवित ही नहीं हो सकता । अतएव अमूर्त-मूर्त का सामान्य सम्बन्ध मोक्षदशा में होने पर भी वह अज्ञानजन्य न होने के कारण जन्म का निमित्त कदापि नहीं बन सकता।
संसारकालीन वह आत्मा और मूर्त द्रव्य का संयोग अज्ञानजनित ही है जब कि मोक्षकालीन सम्बन्ध में उपरोक्त सारी बातें सदा के लिये वैसी नहीं है।
सांख्य-योगदर्शन आत्मा-पुरुष के साथ प्रकृति का, न्याय - वैशेषिक दर्शन परमाणुओं का, ब्रह्मवादी-वेदान्ती अविद्या-माया का, बौद्धदर्शन चित्तनाम के साथ रूप का और जैनदर्शन जीव के साथ कर्माणुओं का संसारकालीन विलक्षण सम्बन्ध मानते हैं । ये सभी मान्यता पुनर्जन्म और मोक्षविषयक विचार में से फलित हुई है।
इस से यह तो स्पष्ट जाना जाता है कि सभी भारतीय दार्शनिकों का मुख्य और अंतिम चिंतन आत्मविषयक ही रहा है। अन्य सभी विषय-विचार आत्मतत्त्व की शोधखोल में से ही उत्पन्न हुए हैं । अतएव आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप के विषय में एक दूसरे से भिन्न परस्पर विरोधी ऐसे अनेक मत-मतान्तर बहुत ही चिरकाल से दर्शनशास्त्रों में पाये जाते हैं । आत्मा को नित्य एवं कूटस्थ माननेवाले दर्शनों में औपनिषद्, सांख्य आदि दर्शनों के नाम प्रसिद्ध हैं । परन्तु यह मान्यता उपनिषद् काल से भी पहिले की हैं।
__"आत्मा अर्थात् चित्त या नाम को भी सर्वथा क्षणिक मानने का जो बाद्ध सिद्धान्त है वह भी गौतमबुद्ध का समकालीन तो अवश्य ही है । इन सर्वथा नित्यत्व और सर्वथा क्षणिकत्व स्वरूप दो एकान्तों के मध्य हो कर चलनेवाला उक्त दोनों एकान्तों का समन्वयात्मक नित्यानित्यत्ववाद भगवान् श्रीमहावीरप्रभु के द्वारा (भग० श० ७३, २ आदि आगमग्रन्थों में ) स्पष्टरूप से प्रतिपादित किया गया है"। -पं० सुख०
इस जलाभिमत आत्मनित्यानित्यत्ववाद का समर्थन एवं प्रतिपादन मीमांसाअग्रगण्य कुमारिल जैसे विद्वान्ने भी अपनी (श्लोक वा० श्लो० २८ में ) बडी ओजस्विनी तार्किक शैली के साथ सविस्तर वर्णन किया है । इसी तरह का प्रतिपादन जैनतर्क ग्रन्थों में जगह २ पर पाया जाता है । यद्यपि इस विषय में जब हम समर्थ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य के न्यायग्रन्थों को देखते हैं तो यही निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने भी जैनमान्यतानुसार नित्यानित्यत्व आत्मतत्त्व की पुष्टि में कुमारिल के श्लोकवार्तिकान्तर्गत
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