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विषय खंड
भारतीय दर्शनों में आत्मस्वरूप
प्रत्यक्ष वह वस्तुतः प्रत्यक्ष नहीं अपितु परोक्ष ही माना जाता है । श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपने विशेषावश्यकभाष्य गाथा ९५ में “ इंदियमणोभवं जं तं संववहार पच्चखं " इसके द्वारा आगमिक द्विविध प्रमाणविभाग में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान इन पांचों ज्ञान में से प्रथम दो को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष बतलाकर अन्य तीनों को पारमार्थिक प्रत्यक्ष रूप से माना है और इसी विचार से आर्यरक्षितसूरि स्थापित इन्द्रियजन्य - नोइन्द्रियजन्य ज्ञान जो कि नंदी सूत्रकार स्वीकृत मन्तव्य का तर्कपुरस्सर शैली से वर्णन किया गया है । इस तरह से जैन दर्शन की तार्किक परम्परा प्रस्यक्ष के दो भेद मान के दर्शनान्तर मान्य लौकिक प्रत्यक्ष जिसे कहा जाता है उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहती है' ।
अर्थात् पांच इन्द्रिय और मनोजन्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना गया है । इस से अतिरिक्त शेष तीन ज्ञान को नोइन्द्रियजन्य होनेके कारण पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है ।
तत्प्रमाणे, आधे परोक्षम्, प्रत्यक्षमन्यत् । — तत्त्वार्थसूत्र |
जैनेतर दर्शनों में जिसे अलौकिकप्रत्यक्ष कहा जाता है उस ही को जैन मतमें पारमार्थिक प्रत्यक्ष के नाम से कहा जाता है । पारमार्थिकप्रत्यक्ष के कारण रूप से लब्धि या विशिष्ट आत्मशक्ति का जो वर्णन किया जाता है, वह एक तरह से अन्य दर्शनमान्य योगजधर्म की ही परिभाषा को बतलाता है अर्थात् योगजन्य ही है । ज्ञान को स्वप्रकाशी माननेवालों में मीमांसक, वेदान्त, प्रभाकर और विज्ञानवादी बौद्ध एवं खास करके जनमत का समावेश होता है । परन्तु ज्ञानविषयक स्वरूप में सभी की मान्यता एक सी नहीं दिखाई देती भिन्न-भिन्न तरह की विचारधारा है, जिज्ञासुओं को यह विषय दार्शनिक ग्रन्थोंसे जानना चाहिये ।
उपरोक्त अलौकिक ज्ञानमें प्रत्यक्ष का विषय निर्विकल्प ही होता है या सविकल्प ही या उभयरूप ? इन प्रश्नों के उत्तर में दार्शनिक मान्यता एक समान नहीं दिखाई पडती । कुछ दर्शनों के विचार यहाँ पर संक्षिप्त में ही दिखलाना आवश्यक समझे गये हैं । न्याय-वैशेषिक, वैदिक, आदि कुछ दर्शनों के अनुसार अलौकिक प्रत्यक्ष को सविकल्प - निर्विकल्प या उभयरूप से माना है । तार्किक बोद्ध एवं शाङ्करवेदान्त परम्परा के अनुसार तो अलौकिकप्रत्यक्ष को प्रायः निर्विकल्प हीं मानने पर अधिक जोर दिया गया है। जब कि वेदान्त की शाखा रामानुज की मान्यता में ठीक इस से विपरीत ही मालूम होती है, इस मान्यता में लौकिक या अलौकिक उभयरूप प्रत्यक्ष को सविकल्प ही मानने का आग्रह रहा है । निर्विकल्प को असंभव ही बतलाया
* सर्वत्रैव हि विज्ञानं संस्कारत्वेन गम्यते, पराङ्ग चात्मविज्ञानादन्यत्रेत्यवधारणाद् ||
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१ इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवग्रहेहावायधारणात्मा सांव्यवहारिकम् । प्रमाणमीमांसा, अ० १-१- २० ।
तंत्र वा० पृष्ठ २४०
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