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समयसुन्दर की रचनाएँ १५. रति-अरति, १६. परपरिवाद, १७. मायामृषावाद और १८. मिथ्यात्व-शल्य।
लेखक ने प्रथम पांच पापों को पांच आश्रव कहा है। तत्पश्चात् वाले चार पापों को चार कषाय और राग एवं द्वेष को बन्धन कहा है। शेष पापों को किसी के अन्तर्गत न रखकर स्वतन्त्र नाम दिये गये हैं।
३.चतुरशीतिजीवयोनिक्षामणम्- इस अधिकार में चौरासी लाख जीवयोनियों में रहने वाले जीवों के प्रति हुई विराधना या अपराधों के लिए क्षमा-याचना करने का मुख्यतः निर्देश किया गया है। महोपाध्याय समयसुन्दर ने इन चौरासी लाख जीवयोनियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है -
सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अप्काय, सात लाख तेजस्काय, सात लाख वायु-काय, दस लाख प्रत्येक-वनस्पति-काय, चौदह लाख साधारण-वनस्पति-काय, दो लाख द्वीन्द्रिय, दो लाख त्रीन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, चार लाख देवता, चार लाख नारकी, चार लाख तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और चौदह लाख मनुष्य = चौरासी लाख जीवयोनि।
__लेखक ने इनके अतिरिक्त इन योनियों में आने वाले जीवों का भी विस्तृत उल्लेख किया है। उन जीवों के आयुष्य, स्थिति, देह-परिमाण और योनि-परिमाण का भी वर्णन किया है।
४. दुष्कृत-गर्हा- प्रस्तुत अधिकार में स्वधर्म का खण्डन, परधर्म का मण्डन, आरम्भ-समारम्भ और पंच अणुव्रत एवं श्रावकधर्म के बारह व्रत के खण्डन से लगे दोषों का विवरण देते हुए यह बताया है कि इनकी गर्दा करनी चाहिये।
५. सुकृत-अनुमोदना- इसमें श्रावक धर्म के बारह-व्रत, तीर्थ-यात्रा, पुस्तकलेखन, जिनमन्दिर-निर्माण-जीर्णोद्धार, पौषध, दान, शील, तप, चतुर्विध संघ वैयावृत्य आदि सुकृतों का वर्णन करते हुए उनकी अनुमोदना करने का विधान किया गया है।
इस तरह हम देखते हैं कि समयसुन्दर ने श्रावक-धर्म का सुन्दर एवं नवीन विवेचन किया है। श्रावक-जीवन की उपरोक्त भूमिकाएँ उसका विकास करने वाली हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ गद्यबद्ध है। इसकी संस्कृत भाषा अत्यन्त सरल है। शब्दावली आद्यन्त सरलतम होने से शीघ्रबोधगम्य है। समयसुन्दर ने यह ग्रन्थ महिमासमुद्र नामक अपने शिष्य के आग्रह से निबद्ध किया था। इसका रचना-काल वि० सं० १६६७ और रचना-स्थान उच्च-नगर है। ग्रन्थान्त में लिखा है -
___ उच्चाभिधान नगरे...........
महिमासमुद्र-शिष्याग्रहेण मुनिषड्रसचन्द्रवर्षे ॥ श्री अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर; श्री जिनकुशलसूरि ज्ञान भण्डार, रामघाट, वाराणसी आदि ज्ञान भण्डारों में प्रस्तुत ग्रन्थ की कई पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं।
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