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________________ ५८ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व वस्तुतः बुराई तभी पनपती है, जब साम्प्रदायिक संकीर्णता के कारण दूसरे गच्छ या परम्पराओं के प्रति उदारता नहीं रहती है। अनुदार दृष्टि ही साम्प्रदायिकता के विष का कारण बनती है। संकुचित दृष्टिकोण ही साम्प्रदायिकता आदि को जन्म देता है। यदि इससे छुटकारा नहीं पाया जाय, तो यह मनुष्य को बन्धन और संकीर्णता में डाल देगा और मनुष्य को जीवन के महत्त्वपूर्ण पाथेयों से विमुख कर देगा। यद्यपि समयसुन्दर खरतरगच्छ के अनुयायी थे, तथापि वे साम्प्रदायिकता के संकुचित पाश में बँधे हुए नहीं थे। उनकी रचनाओं पर दृष्टिपात करने से यह प्रतीत होता है कि वे साम्प्रदायिकता से ऊपर उठे हुए एक नि:स्पृह साधक और कवि थे। वे सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित होते हुए भी सम्प्रदायवाद के जाल से पूर्णतः मुक्त थे। समयकालीन अन्य गच्छों और सम्प्रदायों के प्रति भी उनके सम्बन्ध मधुर थे। १६.४.१ तपागच्छ से पारस्परिक सम्बन्ध- तपागच्छ, जैन धर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्रमुख शाखा है। जगच्चन्द्रसूरि इस गच्छ के आधाचार्य हैं। उन्होंने उग्र तप किया। इस तप के कारण मेवाड़-नृपति राणा ने विक्रम संवत् १२८५ में उन्हें तपा-विरुद प्रदान किया। तब से इनकी परम्परा तपागच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी परम्परा में कवि के समकालीन आचार्य हीरविजयसूरि हुए। आपका जन्म पालनपुर में वि० सं० १५८३ में तथा दीक्षा वि० सं० १५९६ में पाटण में हुई। वि० सं० १६०७ में सिरोही में उन्हें आचार्यपद प्रदान किया गया। आप प्रखर विद्वान् होने के साथ त्यागी मुनि थे। आपने अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठाएँ कीं। सम्राट अकबर जैसे मान्य सम्राट भी आपके बुद्धिबल और चारित्रिक-विशेषताओं से प्रभावित थे। कवि समयसुन्दर ने आपको जिनशासन का दैदीप्य नक्षत्र बताया है और अपने खरतरगच्छ के नायक के समान ही उनको महत्त्व दिया है। कवि अपने को धन्य-धन्य समझता है कि ऐसे युगप्रधान भट्टारक की सौभाग्यवश प्राप्ति हुई है। सम्प्रदाय-भेद होते हुए भी कवि में गुणग्राहकता का तत्त्व निहित है। कवि कहता भट्टारक तीन भये बड़भागी। जिण दीपायउ श्री जिनशासन, सबल पडूर सोभागी॥ खरतर श्रीजिनचन्द्रसूरीश्वर, तथा हीरविजय वैरागी। विधि पक्ष धरममूरतिसूरीसर, मोटो गुण महात्यागी॥ मत कोउ गर्व करउ गच्छनायक, पुण्यदशा हम जागी। समयसुन्दर कहइ तत्त्वविचारउ, भरम जाय जिम भागी॥२ १. द्रष्टव्य - श्री पट्टावली पराग-संग्रह (द्वितीय परिच्छेद); तपागच्छ पट्टावली सूत्र, पृष्ठ १४५-१४६ १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, भट्टारक-गीत पृष्ठ ३५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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