SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७० महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व २. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और ३. औपशमिक सम्यक्त्व । अति- विशुद्ध जीव क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है और मन्दविशुद्ध जीव औपशमिक सम्यक्त्व । ' १५.३ सम्यक् चारित्र आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए ज्ञान और दर्शन (श्रद्धा) जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी चारित्र - आचरण है। इस सम्बन्ध में समयसुन्दर स्पष्ट लिखते हैं, 'न केवलं ज्ञानमेव दर्शनसहितं मोक्षकरं, किन्तु चारित्रमपि दर्शनसहितं एव मोक्षसाधकं भवति । २ अर्थात् न केवल दर्शन सहित ज्ञान मोक्षकर है, अपितु दर्शनसहित चारित्र भी मोक्ष-साधक होता है। उनके अनुसार सम्यक्त्व उपलब्ध होने पर क्रिया रूप चारित्र की प्रवृत्ति सफल होती है। वस्तुत: चारित्र सम्यक्त्व और ज्ञान - दोनों का अनुगामी हुआ करता है। समयसुन्दर अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए कहते हैं कि चारित्रशून्य पुरुष का विपुल ज्ञान भी व्यर्थ ही है । वे कहते हैं कि क्रिया सहित ज्ञान लाभदायक होता है, क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानियों की क्रिया व्यर्थ है । एकाकी ज्ञान तो पंगु व्यक्ति के समान है। जैसे पंगु व्यक्ति वन में लगी आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है और अन्धा व्यक्ति दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है; अत: ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है, जैसे कि पंगु और अन्धा दोनों यदि मिल जायें तो अपने को वन में लगी आग में जलने से बचा सकते हैं । " समयसुन्दर अपने शिष्यों को क्रिया के लिए प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि शिष्यो ! तुम क्रिया करो, ताकि तुम्हारा निस्तार हो । प्रमाद और आलस्य का त्याग कर दो। क्रियावन्त देखने में भी बड़ा अच्छा लगता है और कर्मों से मुक्त भी होता है। समयसुन्दर ने चारित्र के सम्बन्ध में जिन तथ्यों का उल्लेख किया है, उनसे यह लगता है कि वे चारित्र के सम्यक् परिपालन के लिए व्यवहार चारित्र और निश्चय चारित्र दोनों की विद्यमानता अपरिहार्य मानते हैं । व्रत समिति आदि का पालन व्यवहार - चारित्र है और निजस्वरूप में स्थितिरूप, मोह - क्षोभविहीन समता या प्रशान्त भाव निश्चय - चारित्र है । व्यवहार चारित्र का लक्ष्य निश्चय चारित्र है । वस्तुतः निश्चय चारित्र के लिए ही व्यवहार चारित्र है । इस प्रकार हम देखते हैं कि समयसुन्दर द्वारा मान्य प्रस्तुत त्रिविध साधना - मार्ग १. विशेषशतकम् (६५) २. सप्तस्मरणवृत्ति, चतुर्थस्मरण, पृष्ठ ३१ ३. वही, पृष्ठ ३१ ४. वही, पृष्ठ ३२ ५. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, क्रियाप्रेरणा गीतम्, पृष्ठ ४३७-३८ ६. वही, क्रियाप्रेरणा गीतम्, पृष्ठ ४३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy