________________
समयसुन्दर का विचार- पक्ष
१५.१.४ मनः पर्यव ज्ञान
दूसरे की मन की बात प्रत्यक्ष जान लेने वाला ज्ञान मनःपर्यव ज्ञान है । समयसुन्दर ने इसके दो भेद बताए हैं । '
१५.१.५ केवलज्ञान
इन्द्रिय आदि से निरपेक्ष तथा सर्वग्राही आत्मज्ञान केवलज्ञान है । समयसुन्दर लिखते हैं कि केवलज्ञान अभेद होने से यह एक ही प्रकार का होता है । केवलज्ञान का वर्णन करते हुए समयसुन्दर लिखते हैं
-
चंद्र सूरज ग्रह नक्षत्र तारा, तेसूं तेज आकाश रे । केवलज्ञान समउ नहीं कोई, लोकालोक प्रकास रे ॥२
१५.२ सम्यग्दर्शन
समयसुन्दर के मतानुसार सम्यग्दर्शन का अर्थ है- 'अवगतेषु तत्त्वेषु रुचिः परमा श्रद्धा आत्मनः परिणामविशेषरूपा सा सम्यग्दर्शनम् । ३ अर्थात् ज्ञात तत्त्वों में रुचि और आत्मा की परिणाम विशेष जो परम श्रद्धा है, वही सम्यग्दर्शन है। समयसुन्दर ने सम्यग्दर्शनं के लिए सम्यक्त्व शब्द का प्रयोग किया है । सम्यक्त्व की परिभाषा उन्होंने उपरोक्त परिभाषा से कुछ भिन्न की है। उन्होंने लिखा है, 'देवगुरुधर्मतत्त्वत्रयश्रद्धान् स्वरूपं सम्यक्त्वम् अर्थात् देव, गुरु और धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखना ही सम्यक्त्व है । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि समयसुन्दर के अनुसार सम्यग्श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है, सम्यक्त्व है I
१४
1
समयसुन्दर की मान्यता है कि सम्यक्त्व प्राप्त होने पर ही ज्ञान और चारित्र सार्थक सिद्ध होते हैं। बिना सम्यक्त्व या दर्शन के ज्ञान और चारित्र का कोई मूल्य नहीं है।" समयसुन्दर के अनुसार सम्यक्त्व जैनधर्म का मर्म है और सभी धर्मों का यह मूल है।
समयसुन्दर का कहना है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति बहुत कठिन है । मुक्ति के आकांक्षी को सम्यक्त्व की आराधना सर्वप्रथम करनी चाहिये, क्योंकि इसकी प्राप्ति होने पर मुक्ति अवश्य मिलती है। सम्यक्त्व तीन प्रकार का होता है. १. क्षायिक सम्यक्त्व,
९. वही, ज्ञानपंचमी लघुस्तवनम्, पृष्ठ २४० २ . वही, ज्ञानपंचमी लघुस्तवनम्, पृष्ठ २४० ३. विशेषशतक, पृष्ठ ६६
४६९
४. श्रावकाराधना (पत्र १ ) ५. सप्तस्मरणवृत्ति, चतुर्थस्मरण, पृष्ठ ३१ ६. (क) यति-आराधना (पत्र १),
(ख) श्रावकाराधना ( पत्र १ )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org