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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कारण हैं, अतः इन्हें आभ्यन्तर तप कहा जाता है। समयसुन्दर ने ये सभी तप करणीय बतलाये हैं। उनका उपदेश है कि आत्म-रूपी वस्त्र कर्म-रूपी मैल से मैला हो गया है, उसे तप रूपी जल से धोकर निर्मल करना चाहिये। आत्मरूपी वस्त्र के स्वच्छ होने पर ही तुम सुन्दर मुक्ति-रमणी का सुख प्राप्त कर सकोगे। १०.४ भावधर्म
___भावना (अनुप्रेक्षा) मन का वह भावात्मक पहलू है, जो साधक को उसकी वस्तु-स्थिति का बोध कराता है। समयसुन्दर ने भावनाओं का माहात्म्य प्ररूपित करते हुए कहा है कि दान, शील, तप और भावना के भेद से धर्म चार प्रकार का है, किन्तु इन चतुर्विध धर्मों में भावना ही सर्वप्रधान एवं महाप्रभावी है। दान, शील, तप में भी केवल भावों की प्रधानता है। वास्तव में भावनाशून्य धर्म-कर्म सब निरर्थक हैं। अतः सभी धर्मों में भाव ही प्रमुख है, शेष सब तो गौण हैं। समयसुन्दर कहते हैं कि धर्माचार्य तो इस बात की साक्षी देते ही हैं, व्याकरणाचार्य भी कहते हैं कि दान, शील, तप - तीनों नपुंसक हैं। अतः भावविहीन ये तीनों उपस्थित होकर भी शून्यवत् हैं। जैसे रस के बिना कनक की उत्पत्ति, जल के बिना तरुवर की वृद्धि और नमक के बिना भोजन का रसवान होना असम्भव है, उसी प्रकार भाव के बिना किसी प्रकार की सिद्धि नहीं होती है। यदि कोई भावरहित होकर मंत्र, तन्त्र, मणि तथा औषधि की सिद्धि अथवा देव, धर्म, गुरु की सेवा-पूजा करता है, तो सब व्यर्थ है। यथार्थतः भाव ही सदैव फलीभूत होता है। यही मोक्ष का सोपान
समयसुन्दर ने निम्नलिखित बारह भावनाओं के चिन्तवन में लीन रहने की प्रेरणा दी है - १. अनित्य-भावना- तन, मन, यौवन, आयुष्य, कुटुम्ब आदि सभी कुछ अनित्य एवं
नाशवान् मानना अनित्य-भावना है। २. अशरण-भावना- वैराग्य-वृद्धि के लिए धन-कुटुम्बादि की अशरणता का चिन्तवन
अशरण-भावना है। ३. एकत्व-भावना- अपने कर्मों का फल भोगने में सर्व जीवों की असहायता का
चिन्तवन एकत्व-भावना है। ४. अन्यत्व-भावना- अपने स्वरूप को देहादि से भिन्न देखने की भावना अन्यत्व
__ भावना है।
१. (क) दशवैकालिकवृत्ति (पृष्ठ १) (ख) चातुर्मासिक व्याख्यान (पत्र १) २. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, तप गीतम्, पृष्ठ ४५४ ३. सीताराम चौपाई (४.१ से पूर्व दूहा १) ४. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, दान-शील-तप-भाव-संवाद, पृष्ठ ५८९
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