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समयसुन्दर का विचार-पक्ष
४६३ ५. संसार-भावना- संसार में जन्म-मरण रूप भय देखते हुए इससे मुक्त होने की
भावना का पुनः-पुनः चिन्तवन संसार-भावना है। ६. लोक-भावना- लोक की रचना, आकृति, स्वरूप पर विचार करते हुए यह
चिन्तवन करे कि उसका आचार ऐसा हो, जिससे उसकी आत्मा पतन के स्थानों को छोड़कर ऊर्ध्वलोक में जन्म ले अर्थात् लोकाग्र पर जाकर मुक्ति प्राप्त करे - इस
प्रकार का चिन्तन करना लोक-भावना है। ७. अशुचि-भावना- शरीर की अशुचिता का बार-बार चिन्तन करना अशुचि-भावना
८. आश्रव-भावना- मोहजन्य भावों को और मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों की
हेयता का चिन्तन आश्रव-भावना है। ९. संवर-भावना- कर्मों के आगमन को रोकने के उपायों पर विचार करना संवर
भावना है। १०. निर्जरा-भावना- पूर्व में बन्धे हुए कर्मों को नष्ट करने के उपायों का विचार करना
निर्जरा-भावना है। ११. धर्म-भावना- जन्म-जरा-मरण रूप इस दुःखमय संसार में धर्म का ही रक्षकरूप - में चिन्तवन करना धर्म-भावना है। १२. बोधि-भावना- बोधि प्राप्त करने के लिए अरिहन्त वीतराग का नाम एवं उनके
आदर्श गुणों का बार-बार स्मरण करना बोधि-भावना है।
समयसुन्दर ने उक्त बारह भावनाओं का बार-बार चिन्तवन करने की सलाह दी है। ये सभी भावनाएँ कर्म-जंजीरों को तोड़ने में समर्थ हैं। दान, शील, तप के साथ भाव भी हो, तो धर्म साधक को मुक्ति अवश्यमेव प्रदान करेगा। ११. ध्यान
ध्यान एक ऐसा माध्यम है, जो ध्याता का ध्येय के साथ एकता स्थापित करता है। प्रथमतः ध्यान सालम्ब होता है, किन्तु अन्त में ध्याता सालम्ब ध्यान से निरालम्ब तत्त्व को प्राप्त कर लेता है। समयसुन्दर कहते हैं कि तीर्थङ्कर-ध्यान रूप सूर्य के उदित होने पर मोह-मिथ्यात्व रूप अन्धकार समाप्त हो जाता है। उनके विचारानुसार उत्कृष्ट ध्यान रूपी उद्दिप्त अग्नि से मनुष्य अनेक भवों में संचित, उपार्जित समस्त कर्मों का नाश कर सकता है। १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, बारह भावना गीतम्, पृष्ठ ४५९-६० २. वही, पृष्ठ ४६० ३. वही, भावना गीतम्, पृष्ठ ४५४ ४. सप्तस्मरणस्तववृत्ति, द्वितीयस्मरणम्, पृष्ठ १८ ५. वही, पृष्ठ १८-१९
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