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________________ समयसुन्दर का विचार-पक्ष ४६१ की रक्षा के लिये निम्नलिखित बातों से बचने का निर्देश किया है - १. स्त्रियों से आकीर्ण स्थान, २. मनोरम स्त्री-कथा ३. स्त्रियों का परिचय, ४. उनके अंगोपांगों को देखना, ५. उनके कूजन, रोदन, गीत और हास्ययुक्त शब्दों को सुनना, ६. भुक्त भोगों और सहवास-स्थान को स्मरण करना, ७. अति पौष्टिक भोजन-पान, ८. मर्यादा से अधिक भोजन-पान, ९. शरीर को भंगारित करना। उक्त सभी बातें त्याज्य हैं। इन्हें समयसुन्दर ने 'नव वाड़' नाम दिये हैं। इन नववाड़ों के द्वारा शील रूपी कल्पवृक्ष की रक्षा करनी चाहिये। प्रभुता इसके पत्ते हैं, सुख इसके फूल हैं और फल इसका मुक्ति है, जो अत्यन्त मनोहर एवं मधुर है। समयसुन्दर ने 'तप' का मानवीकरण करके उसके द्वारा शील की निम्नलिखित शब्दों में निन्दा भी करवाई सरसा भोजन तइ तज्या, न गमइ मीठी नाद। देह तणी सोभा तजी, तुझ नइ किस्यउ सवाद। नारि थकी डरतउ रहइ, कायरि किस्यउ बखाण। कूड कपट बहु केलवी, जिम तिम राखइ प्राण ॥ को बिरलउ तुझ आदरइ, छांडइ सहु संसार। एक आपतुं भाजतउ, बीजा भांजइ च्यार ॥३ १०.३ तपधर्म समयसुन्दर ने तप को शरीर एवं आत्मा - दोनों के लिए हितकर एवं लाभदायक बताया है। उन्होंने लिखा है कि तप से काया निर्मल होती है, इच्छाओं का निरोध होता है, इन्द्रियाँ वश में होती हैं, परमार्थ सिद्ध होता है और समाज तपस्वी का आदर करता है। उन्होंने एक स्थान पर यह भी लिखा है कि तप से कुष्टादिक रोग भी समाप्त हो जाते हैं। उत्तम तप से अट्ठाइस प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त होती हैं। समयसुन्दर ने तप के दो भेद बताये हैं - १. बाह्य तप और २. आभ्यन्तर तप। बाह्य तप के छह भेद हैं- १. अनशन, २. ऊनोदरिका, ३. वृत्ति-संक्षेप, ४. रस-परित्याग, ५. कायक्लेश और ६.संलीनता । ये मोक्षसाधना के बहिरंग कारण हैं, अतः इन्हें बाह्य तप कहा जाता है। आभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं- १. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान और ६. व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग)। ये मोक्ष-साधना के अन्तरंग १. वही, नव-वाड़-शील गीतम् (१-१०) २. वही, नव-वाड़-शील गीतम् (११-१२) ३. वही, दान-शील-तप-भाव-संवाद, पृष्ठ ५८७ ४. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, तप गीतम्, पृष्ठ ४५४ ५. वही, दान-शील-तप-भाव-संवाद, पृष्ठ ५८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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