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समयसुन्दर का वर्णन-कौशल
३१५ दीपान् दीपालिकापर्वेकृतानुच्चस्तरं निशि। वीक्ष्य विस्मयतो ज्ञानं, शतचन्द्रनभस्तलम्। ग्रस्यते राहुणा नित्यमेक एकहि मत्प्रियः।
सृष्टमासात्तदा श्रेष्ठं, शतचन्द्रनभस्तलम् ॥ कवि समयसुन्दर ने प्रस्तुत के वर्णन में जिन अप्रस्तुतों का सहारा लिया है उसमें प्रकृति-संबंधी उपादान बहुत ज्यादा हैं। वे प्रकृति की क्रोड़ में क्रीड़ा कर सुखद शान्ति का अनुभव करते हैं। प्रकृति के जिन-जिन तत्त्वों पर वे रीझते हैं, उनसे अपने काव्य को उपमित कर लेते हैं। निश्चय ही प्राकृतिक उपमानों के प्रयोग से उनकी रचनाएँ प्रभावोत्पादक एवं अधिक बोधगम्य बनी हैं।
समयसुन्दर की प्रत्येक रचना में प्राकृतिक उपादानों की बहुलता है। अंगविशेष, कार्य-विशेष या घटना-विशेष को प्रभावयुक्त बनाने के लिए कमल, भ्रमर, सूर्य, प्रभात, मीन, बील, विद्युत्, हंस, पुष्प, मोती, मूंगा, खञ्जन, तारा, सिंह, पशु-पक्षी, बिम्बाफल, विभिन्न पक्षियों का कलरव, ऋतु, चन्द्रमा, चांदनी, नाग, कुंभस्थल, कीर, विविध नदियाँ, तालाब, झरना, सिन्धु, रज, तृण, छाया, गिरि-प्रान्तर इत्यादि से सहायता ली है और आवश्यकतानुसार अनेक बार इन्हें अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। वस्तुतः कवि की प्रत्येक रचना प्राकृतिक उपमानों से उपमित है और कतिपय रचनाएँ तो प्राकृतिक सम्पदा और सुन्दरता से भरपूर हैं।
कवि ने अपनी सूक्ष्म निरीक्षण-शक्ति एवं मूर्त-विधायिनी कल्पना आदि के माध्यम से अपनी रचनाओं में प्रकृति की मनोहर छवियाँ चित्रित कर दी हैं। कवि समयसुन्दर भगवान् के रूप-सौन्दर्य को विविध प्राकृतिक उपादानों से उपमित करते हैं
पूरण चन्द जिसो मुख तेरो, दंतपंक्ति मचकुंद कली हो। सुन्दर नयन तारिका शोभत, मानु कमल-दल मध्य अली हो॥
कवि ने विविध प्राकृतिक तत्त्वों से अपने इष्टदेव का सौन्दर्य उजागर किया है, किन्तु वे एक अन्य गीत में प्रकृति के सभी उपादानों को सदोष सिद्धकर यह बताते हैं कि उनका इष्टदेव जिनेश्वर तो दोषमुक्त है। देखिये -
अहो मेरे जिन कुं कुण ओपमा कहुँ। काष्ठ कलप चिन्तामणि पाथ, कामगवी पशु दोष ग्रहुँ । चन्द्र कलंकी समुद्र जल खारउ, सूरज ताप न सहुँ। जल दाता पणि श्याम वदन घन, मेरु कृपण तउ हुँ किम सदहुँ।
१. समस्याष्टकम् (५-१४) २. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, अजितजिनस्तवन (२)
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