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________________ समयसुन्दर की भाषा २९१ श्रीपर्युषणापर्वणि लोकसमक्षं छेदग्रन्थरूपं श्री कल्पसूत्रं वाच्यते तत् कस्मिन्? लौकिकटिप्पनकोपरि दीक्षामुहुर्त गण्यते, द्वादशमासवृद्ध्या पर्युषणापर्व क्रियते तत् कस्मिन्? नव्योपाश्रयाः कार्यन्ते तत् कस्मिन्? अन्यगच्छाद् उद्ग्राह्य यदात्मीयः श्रावकः क्रियते तदा पूर्व देवपूजाशत्रुञ्जयादियात्राकरणस्य मिथ्यादुष्कृतं दाप्यते तत् कस्मिन्०? तैलचूर्णादिमध्ये वस्त्रादि मलिनानि क्रियन्ते तत् कस्मिन्? एवं शतश: कर्त्तव्यानि क्रियमाणानि दृश्यन्ते, अāद रहस्यम्-येषु आगमेषु एतानि सन्ति ते आगमास्तैर्न मन्यन्ते, मन्यमानागतेषु न सन्ति तानि, ततो यदि एतानि तैः क्रियस्ते, तदा एतद्गर्भिता आगमा अपि माननीयाः, नो चेदेतानि कार्याणि न करणीयानि तथा यानि दुष्टाचरणानि क्रियन्ते तानि कस्मिन् ग्रन्थे प्रोक्तानि सन्ति? ऊपर वर्णित उदाहरण में जो लोग पैंतालीस आगमों को नहीं मानते हैं, उनसे ४५ प्रश्न किये गये हैं और यह पूछा गया है कि वे जिन क्रियाओं को करते हैं, उनका उनके द्वारा स्वीकृत बत्तीस आगमों में कहीं निर्देश नहीं है, फिर वे उन्हें किस आधार पर करते हैं? यदि वे उन क्रियाओं को अन्य आगमिक ग्रन्थों के आधार पर करते हैं, तो उन्हें उन आगम-ग्रन्थों को भी स्वीकार करना चाहिए। इस तरह हम देखते हैं कि समयसुन्दर के अकाट्य तर्कों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वे (मुख्यतः स्थानकवासी) जिन आधारों पर इन मान्यताओं को स्वीकृत करते हैं, उनके ही आधारभूत ग्रन्थों को अस्वीकार करना उनके लिए उचित नहीं है। अस्तु! तार्किक शैली के अन्तर्गत हम समयसुन्दर की उस शैली को भी स्वीकार करते हैं, जिसमें वे किसी तर्क अथवा धारणा के सत्यासत्य पक्ष पर विचार करने के लिए ग्रन्थों के प्रमाण अथवा आगमिक वचन प्रस्तुत करते हैं । इस शैली में वे किसी तर्क या प्रश्न का उत्तर संक्षेप में सबसे पहले अपनी ओर से दे देते हैं और बाद में अपने तर्क या उत्तर की पुष्टि व प्रामाणिकता के लिए शास्त्रीय उद्धरण। इस शास्त्रीय उद्धरणों का प्रस्तुतिकरण कहीं-कहीं तो इतना अधिक विस्तृत होता है कि केवल उन शास्त्रों के नामों की एक लम्बी सूची बन जाती है। ऐसे प्रकरणों की शैली व्यासशैली-सी लगती है। समाचारीशतक प्रभृति ग्रन्थों में ऐसे अनेक प्रकरण हैं, जिसमें एक तर्क की सिद्धि के लिए पचासों ग्रन्थों-शास्त्रों का मत दिया गया है। समयसुन्दर की इस तार्किक पद्धति के अवलोकन हेतु निम्नांकित पंक्तियाँ दर्शनीय हैं - ननु - केऽपि प्रवदन्ति मिथ्यादृष्टिविनिर्मितभारततर्कव्याकरणकाव्यादीनां पठने मिथ्याश्रुतत्वात् मिथ्यात्वं जायते ततः सम्यग्दृष्टिभिनं पठनीयम् इति तत् सत्यम् इतरत् वा? उच्यते तदवचो सत्यम् एव सम्भाव्यते, मिथ्या श्रुतस्यापि सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतत्वेन सम्यक्श्रुतत्वेन भणनात् तथा च पञ्चलिंगिविवरणेपि उक्तं तथाहि - १. समाचारी-शतक, ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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