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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व इस वृत्ति की हस्तलिखित प्रति स्व० पूरणचन्द नाहर-संग्रहालय, कोलकाता में एवं हमारे संग्रह में भी इसकी प्रतिलिपि उपलब्ध है। यह वृत्ति अप्रकाशित है। २.१७ वाग्भटालंकार-टीका
'वाग्भटालंकार' नामक तीन कृतियाँ उपलब्ध होती हैं - एक वाग्भट की, दूसरी रत्नशेखर की और तीसरी धर्मदास की। प्रस्तुत टीका वाग्भट कृत वाग्भटालंकार की है।
__ मूल ग्रन्थ में काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का सांगोपांग विवेचन किया गया है। प्रथम परिच्छेद में काव्य के प्रयोजन, काव्य के कारण और कुछ बन्धों का विवरण दिया गया है। द्वितीय परिच्छेद में काव्य के शरीर, भाषा का स्वरूप और काव्य-दोषों का सोदाहरण निरूपण उपलब्ध होता है। तृतीय परिच्छेद में काव्य के माधुर्य आदि गुणों का
और चतुर्थ परिच्छेद में शब्दालंकार और अर्थालंकार का विशद् वर्णन प्राप्त होता है। पंचम परिच्छेद में रस और नायक-नायिका का निरूपण किया गया है।
काव्यशास्त्रीय मान्यताओं के बारे में आचार्यों में चिरकाल से मतभेद रहा है। वाग्भट के ग्रन्थ में निरूपित उन सभी विषयों का पूर्ण बोध बिना किसी विस्तृत टीका के होना सम्भव नहीं था। इसलिए महोपाध्याय समयसुन्दर ने इस ग्रन्थ पर प्रांजल टीका लिखी है, जिसमें युक्तिपूर्वक मतान्तरों की समीक्षा करते हुए वाग्भट के पक्ष का समर्थन किया गया है। काव्यशास्त्र के अध्येताओं के लिए यह टीका अत्यन्त उपादेय है।
प्रस्तुत टीका का निर्माण संवत् १६९२ में अहमदाबाद नगर में हरिराम मुनि के लिए किया गया था। यह तथ्य ग्रन्थान्त में उल्लिखित पद्य से प्रमाणित होता है -
अहमदाबादे नगरे, करनिधिशृंगारसंख्याब्दे।
किन्त्वर्थलापनं चक्रे, हरिराममुनेः कृते॥ प्रस्तुत कृति की अपूर्ण प्रति बड़ा ज्ञान भण्डार, बीकानेर में एवं एक पूर्णप्रति एसियाटिक सोसायटी, मुम्बई में उपलब्ध है। ग्रन्थ प्रकाशित नहीं है। २.१८ कुमारसम्भव-वृत्ति
प्रस्तुत कृति महाकवि कालिदास रचित 'कुमारसम्भव' की सुबोध टीका है। इस काव्य में तारकासुर द्वारा त्रस्त देवताओं की प्रार्थना से पार्वती के साथ शिव के विवाह
और कुमार की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। कुमारसम्भव' सतरह सर्गों में विभक्त है, किन्तु आलोचकों के अनुसार कालिदास ने यह रचना सप्तम वर्ग तक ही लिखी है। समयसुन्दर ने भी केवल सात सर्गों तक ही 'कुमारसम्भव' की व्याख्या की है।
प्रस्तुत वृत्ति में मुख्यतः शब्दार्थों का ही समास-विग्रह पूर्वक विश्लेषण किया गया है, किन्तु कहीं-कहीं कुछ नवीनता दृष्टिगोचर होती है, जो अन्य वृत्ति-टीकाओं में नहीं है। यथा - प्रथम सर्ग के प्रथम पद्य में 'हिमालय' शब्द का प्रसिद्ध अर्थ बताकर
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